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________________ मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण ३७१ निर्जरा तो इन दो मूल तत्त्वों के सम्बन्ध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। जैन विचारणा के समान गीता में भी यह कहा गया है कि इन्द्रियाँ, शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मानसिक, मन और बुद्धि इस "काम" के वास स्थान हैं। इनके आश्रयभूत होकर वाचिक और कायिक क्रियाओं (योग) का अभाव है, दूसरी ओर मनोभाव ही यह काम ज्ञान को आच्छादित कर जीवात्मा को मोहित किया करता से पृथक् कायिक और वाचिक कर्म एवं जड़कर्म परमाणु भी बन्धन है।१२ ज्ञान आत्मा का कार्य है लेकिन ज्ञान में जो विकार आता है के कारण नहीं होते हैं। बन्धन के कारण राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव वह आत्मा का कार्य न होकर मन का कार्य है। फिर भी हमें यह आत्मिक अवश्य माने गये हैं, लेकिन इन्हें आत्मगत इसलिए कहा स्मरण रखना चाहिए जहाँ गीता में विकार या काम का वास स्थान गया है कि बिना चेतन-सत्ता के ये उत्पन्न नहीं होते हैं। चेतन सत्ता मन को माना गया है वहीं जैन विचारणा में विकार या कामादि का रागादि के उत्पादन का निमित्त कारण अवश्य है लेकिन बिना मन वासस्थान आत्मा को ही माना गया है। वे मन के कार्य अवश्य हैं के वह रागादि भाव उत्पन्न नहीं कर सकती। इसीलिए यह कहा गया लेकिन उनका वास स्थान आत्मा ही है। जैसे रंगीन देखना चश्मे का कि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। दूसरे हिन्दू, बौद्ध और कार्य है, लेकिन रंगीनता का ज्ञान तो चेतना में ही होता है। जैन आचार दर्शन इस बात में एकमत हैं कि बन्धन का कारण अविद्या सम्भवतः यहाँ शंका हो सकती है कि जैन विचारणा में तो अनेक (मोह) है। अब प्रश्न यह है कि इस अविद्या का वास स्थान कहाँ बद्ध प्राणियों को अमनस्क माना गया है, फिर उनमें जो अविद्या या है? आत्मा को इसका वास स्थान मानना भ्रान्ति होगी, क्योंकि जैन मिथ्यात्व है वह किसका कार्य है? इसका उत्तर यह है कि जैन विचारणा और वेदांत दोनों परम्पराओं में आत्मा का स्वभाव तो सम्यग्ज्ञान है। के अनुसार प्रथम तो सभी प्राणियों में भाव मन की सत्ता स्वीकार मिथ्यात्व, मोह किंवा अविद्या आत्माश्रित हो सकते हैं लेकिन वे की गई है। दूसरे श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप यदि मन को सम्पूर्ण आत्मगुण नहीं हैं और इसलिए उन्हें आत्मगत मानना युक्तिसंगत नहीं शरीरगत मानें तो वहाँ द्रव्य मन भी है, लेकिन वह केवल ओघसंज्ञा है। अविद्या को जड़ प्रकृति का गुण मानना भी भ्रान्ति होगी क्योंकि है। दूसरे शब्दों में, उन्हें केवल विवेकशक्ति-विहीन मन (irational वह ज्ञानाभाव ही नहीं वरन् विपरीत ज्ञान भी है। अत: अविद्या का mind) प्राप्त है। जैन शास्त्रों में जो समनस्क और अमनस्क प्राणियों वासस्थान मन को ही माना जा सकता है, जो जड़ और चैतन्य के का भेद किया गया है वह दूसरी विवेकसंज्ञा (Faculty of reasoning) संयोग से निर्मित है। अतः उसी में अविद्या निवास करती है उसके की अपेक्षा से है। जिन्हें शास्त्र में समनस्क प्राणी कहा गया है उनसे निवर्तन पर शुद्ध आत्मदशा में अविद्या की सम्भावना किसी भी स्थिति तात्पर्य विवेक शक्ति युक्त प्राणियों से है। जो अमनस्क प्राणी कहे में नहीं हो सकती। गये हैं उनमें विवेकक्षमता नहीं होती है। वे न तो सुदीर्धभूत की स्मृति मन आत्मा के बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना भाग रख सकते हैं, न भविष्य की और न शुभाशुभ का विचार कर सकते अदा करता है, इसे निम्न रूपक से समझा जा सकता है। मान लीजिए, हैं। उनमें मात्र वर्तमानकालिक संज्ञा होती है और मात्र अंध वासनाओं कर्मावरण से कुंठित शक्ति वाला आत्मा उस आँख के समान है जिसकी (मूल प्रवृत्तियों) से उनका व्यवहार चालित होता है। अमनस्क प्राणियों देखने की क्षमता क्षीण हो चुकी है। जगत् एक श्वेत वस्तु है और में सत्तात्मक मन तो है, लेकिन उनमें शुभाशुभ का विवेक नहीं होता मन ऐनक है। आत्मा को मुक्ति के लिए जगत् के वास्तविक स्वरूप है, इसी विवेकाभाव की अपेक्षा से ही उन्हें अमनस्क कहा जाता है। का ज्ञान करना है, लेकिन अपनी स्व शक्ति के कुंठित होने पर वह जैन विचारणा के अनुसार नैतिक विकास का प्रारम्भ विवेक स्वयं तो सीधे रूप में यथार्थ ज्ञान नहीं पा सकता। उसे मन रूपी क्षमतायुक्त मन की उपलब्धि से ही होता है-जब तक विवेक-क्षमतायुक्त चश्मे की सहायता आवश्यक होती है, लेकिन यदि ऐनक रंगीन काँचों मन प्राप्त नहीं होता है तब तक शुभाशुभ का विभेद नहीं किया जा का हो तो वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान न देकर भ्रांत ज्ञान ही देता है। सकता और जब तक शुभाशुभ का ज्ञान प्राप्त नहीं होता है तब तक इसी प्रकार यदि मन रागद्वेषादि वृत्तियों से दूषित (रंगीन) है तो वह नैतिक विकास की सही दिशा का निर्धारण और नैतिक प्रगति नहीं यथार्थ ज्ञान नहीं देता और हमारे बन्धन का कारण बनता है। लेकिन हो पाती है। अत: विवेक-क्षमतायुक्त (Rational mind) नैतिक प्रगति यदि मन रूपी ऐनक निर्मल है तो वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान देकर की अनिवार्य शर्त है। बेडले, प्रभृति आदि पाश्चात्य विचारकों ने भी हमें मुक्त बना देता है। जिस प्रकार ऐनक में बिना किसी चेतन आँख बौद्धिक क्षमता या शुभाशुभ विवेक को नैतिक प्रगति के लिए आवश्यक के संयोग के देखने की कोई शक्ति नहीं होती, उसी प्रकार जड़ माना है। फिर भी जैन विचारणा का उनसे प्रमुख मतभेद यह है कि मन-परमाणुओं में भी बिना किसी चेतन आत्मा के संयोग के बन्धन वे नैतिक उत्तरदायित्व (Moral responsibility) और नैतिक प्रगति और मुक्ति की कोई शक्ति नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि जिस प्रकार (Moral progress) दोनों के लिए विवेक-क्षमता को आवश्यक मानते ऐनक से देखने वाले नेत्र हैं लेकिन विकास या रंगीनता का कार्य हैं, जबकि जैन विचारक नैतिक प्रगति के लिए तो विवेक आवश्यक ऐनक में है, उसी प्रकार बन्धन के कारण रागद्वेषादि विकार न तो मानते हैं लेकिन नैतिक उत्तरदायित्व के लिए विवेकशक्ति को आवश्यक आत्मा के कार्य हैं और न जड़ तत्त्व के कार्य हैं, वरन् मन के ही नहीं मानते हैं। यदि कोई प्राणी विवेकाभाव में भी अनैतिक कर्म करता कार्य हैं। है तो जैन दृष्टि से वह नैतिक रूप से उत्तरदायी होगा, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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