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________________ मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण जैन साधना में मन का स्थान आस्रव मन के अधीन है, लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता भारतीय दर्शन जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति की समस्या की है उसके कर्मों (बन्धन) की अभिवृद्धि होती रहती है।"२ एक विस्तृत व्याख्या है। भारतीय चिन्तकों ने केवल मुक्ति के उपलब्धि बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञप्ति आदि मन के पर्यायवाची शब्द हैं। के हेतु आचार-मार्ग का उपदेश ही नहीं दिया वरन् उन्होंने यह बताने तथागत बुद्ध का कथन है “सभी प्रवृत्तियों का आरम्भ मन से होता का भी प्रयास किया कि बन्धन और मुक्ति का मूल कारण क्या है? है, मन की उनमें प्रधानता है वे प्रवृत्तियाँ मनोमय हैं। जो सदोष मन अपने चिन्तन और अनुभूति के प्रकाश में उन्होंने इस प्रश्न का जो से आचरण करता है, भाषण करता है उसका दुःख वैसे ही अनुगमन उत्तर पाया वह है- “मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है।" जैन, करता है जैसे- रथ का पहिया घोड़े के पैरों का अनुगमन करता बौद्ध और हिन्दू दर्शनों में यह तथ्य सर्वसम्मत रूप से ग्राह्य है। जैन है। किन्तु जो स्वच्छ (शुद्ध) मन से भाषण एवं आचरण करता है दर्शन में बन्ध और मुक्ति की दृष्टि से मन की अपार शक्ति मानी गई उसका सुख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे साथ नहीं छोड़ने वाली है। बन्धन की दृष्टि से वह पौराणिक ब्रह्मास्त्र से भी बढ़कर भयंकर छाया।" कुमार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक अहितकारी और सन्मार्ग है। कर्म सिद्धान्त का एक विवेचन है कि आत्मा के साथ कर्म-बन्ध पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक हितकारी है। अत: जो इसका संयम की क्या स्थिति है? मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बन्ध करेंगे वे मार के बन्धन से मुक्त हो जायेंगे। लंकावतारसूत्र में कहा उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति तक का हो सकता है। वचनयोग गया है, “चित्त की ही प्रवृत्ति होती है और चित्त की ही विमुक्ति मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है। होती है।'' प्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने पर पचास सागर का, चक्षु के वेदान्त परम्परा में भी सर्वत्र यही दृष्टिकोण मिलता है कि जीवात्मा मिलते ही सौ सागर का और श्रवणेन्द्रिय अर्थात् कान के मिलते ही के बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में कहा हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है। किन्तु यदि मन मिल गया गया है कि "मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है। उसके तो मोहनीयकर्म का बन्ध लाख और करोड़ सागर को भी पार कर विषयासक्त होने पर बन्धन है और उसका निर्विषय होना ही मुक्ति है।" सकता है। सत्तर क्रोड़ाक्रोड़ी (करोड़ करोड़) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट गीता में कहा गया है-“इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ही इस वासना के मोहनीयकर्म "मन" मिलने पर ही बाँधा जा सकता है। वास स्थान कहे गये हैं और यह वासना इनके द्वारा ही ज्ञान को यह है मन की अपार शक्ति, इसलिए मन को खुला छोड़ने से आवृत्त कर समाप्त हो गई है ऐसे ब्रह्मभूत योगी को ही उत्तम आनन्द पहले विचार करना होगा कि कहीं वह आत्मा को किसी गहन गर्त प्राप्त होता है।"१० में तो नहीं धकेल रहा है? जैन विचारणा में मन मुक्ति के मार्ग का आचार्य शंकर भी विवेकचूड़ामणि में लिखते हैं कि मन से ही प्रथम प्रवेश द्वार भी है। वहाँ केवल समनस्क प्राणी ही इस मार्ग पर बन्धन की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की। मन ही देहादि आगे बढ़ सकते हैं। अमनस्क प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने विषयों में राग को बाँधता है और फिर विषवत् विषयों में विरसता का अधिकार ही प्राप्त नहीं है। सम्यग्दृष्टित्व केवल समनस्क प्राणियों उत्पन्न कर मुक्त कर देता है। इसीलिए इस जीव के बन्धन और मुक्ति को हो सकता है और वे ही अपनी साधना में मोक्ष-मार्ग की ओर के विधान में मन ही कारण है। रजोगुण से मलिन हुआ मन बन्धन बढ़ने के अधिकारी हो सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् महावीर का हेतु होता है तथा रज-तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष कहते हैं कि “मन के संयमन से एकाग्रता आती है जिससे ज्ञान (विवेक) का कारण होता है।११ प्रकट होता है और उस विवेक से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है यद्यपि उपरोक्त प्रमाण यह तो बता देते हैं कि मन बन्धन और और अज्ञान (मिथ्यात्व) समाप्त हो जाता है।" इस प्रकार अज्ञान का मुक्ति का प्रबलतम एकमात्र कारण है। लेकिन फिर भी यह प्रश्न अभी निवर्तन और सत्य दृष्टिकोण की उपलब्धि, जो मुक्ति (निर्वाण) की अनुत्तरित ही रह जाता है कि मन ही को क्यों बन्धन और मुक्ति का अनिवार्य शर्त है, बिना मन:शुद्धि के सम्भव ही नहीं है। जैन विचारणा कारण माना गया है? में मन मुक्ति का आवश्यक हेतु है। शुद्ध संयमित मन निर्वाण का हेतु बनता है जबकि अनियन्त्रित मन ही अज्ञान अथवा मिथ्यात्व का जैन साधना में मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण क्यों? कारण होकर प्राणियों के बन्धन का हेतु बनता है। इसी तथ्य को आचार्य यदि हम इस प्रश्न का उत्तर जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से खोजने हेमचन्द्र ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं, “मन का निरोध का प्रयास करें, तो हमें ज्ञात होता है कि जैन तत्त्वमीमांसा में जड़ हो जाने पर कर्म (बन्ध) में पूरी तरह रुक जाते हैं, क्योंकि कर्म का और चेतन ये दो मूल तत्त्व हैं। शेष आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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