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________________ धर्म का मर्म : जैन दृष्टि ३५३ के लिये पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरुरी है। है, अपने प्रति सजग बनता है, वह भावावेशों से ऊपर उठता जाता यही आत्मचेतनता अथवा साक्षी-भाव या द्रष्टा-भाव ही एक ऐसा तत्त्व है। पूर्ण आत्मचेतना की स्थिति में आवेश या आवेग नहीं रह पायेंगे, है जिस पर धर्म की आधारशिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद और आवेश के अभाव में हिंसा सम्भव नहीं है। अत: आत्मचेतनता को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद के साथ हिंसा का कर्म सम्भव ही नहीं होगा। अनुभव और आधुनिक का सीधा और साफ अर्थ है आत्मचेतनता या आत्मजागृति का अभाव। मनोविज्ञान दोनों ही इस बात का समर्थन करते हैं कि दुष्कर्म जितना अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का द्रष्टा है। मनुष्य की बड़ा होगा, उसे करते समय व्यक्ति उतने ही भावावेश में होगा। हत्याएँ, मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में है कि वह सदैव अपने आचार बलात्कार आदि सभी दुष्कर्म भावावेशों में ही सम्भव होते हैं। वासना और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना का आवेग जितना तीव्र है, आत्मचेतना उतनी ही धूमिल होती है, सजग होनी चाहिये। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय कुण्ठित होती है और उसी स्थिति में पाप का या बुराइयों का उद्भव चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की होता है। रागाभाव, ममत्व, आसक्ति, तृष्णा आदि को इसीलिए पाप चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति और अधर्म के मूल माने गये हैं, क्योंकि ये आवेगों को उत्पन्न कर यदि आप पूरी तरह से आत्मचेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हमारी सजगता को कम करते हैं। जब भी व्यक्ति काम में होता है, हैं। जिसे हम सम्यक्-दर्शन कहते हैं मेरी धारणा में उसका अर्थ यही क्रोध में होता है लोभ में होता है अपने आप को भूल जाता है, उसके आत्मदर्शन या आत्मजागृति अथवा द्रष्टा एवं साक्षी-भाव की स्थिति आवेग इतने तीव्र बनते जाते हैं कि वह आत्मविस्तृत होता जाता है, है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मद्रष्टा होने का मतलब है खुद के । अपना आपा खो बैठता है, अत: वे सब बातें जो आत्म-विस्मृति लाती अन्दर झांकना; अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं हैं पाप मानी गई हैं, अधर्म मानी गयी हैं। वस्तुत: धर्म और अधर्म को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता की एक कसौटी यह है कि जहाँ आत्म-विस्मृति है वहाँ अधर्म है और है वही आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने जहाँ आत्म-स्मृति है, आत्म चेतना है, सजगता है, वहाँ धर्म है। विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं दूसरी बात, जिस आधार पर हम मनुष्य और पशु में कोई अन्तर बन सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसी आत्मचेतनता को स्मृति के रूप कर सकते हैं और जिसे मानव की विशेषता या स्वभाव कहा जा सकता में पारिभाषित किया है। सम्यक्-स्मृति बौद्ध धर्म के साधनामार्ग का है वह है, विवेकशीलता। अक्सर मनुष्य की परिभाषा हम एक बौद्धिक एक महत्त्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह प्राणी के रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाये रखो। धम्मपद यह विवेक या ज्ञान का तत्त्व ही एक ऐसा तत्त्व है जो इसे पशु से में वे कहते हैं- अपमादो अमत पदं पमादो मच्चुनो पदं' अर्थात् पृथक् कर सकता है। कहा भी गया हैअप्रमाद ही अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। आहारनिद्राभयमैथुनश्च सामान्यमेतद् पशुभिः नाराणाम् । स्मृतिवान होना, सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नर: पशुभिः समाना।। आवश्यक कसौटी है। आचाराङ्ग में भगवान् महावीर ने एक बहुत ही हम से यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? सुन्दर बात कही है- 'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् वस्तुत: यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने जो सोया हुआ है, सजग या आत्मचेतन नहीं है वह अमुनि है और के पूर्व उसके सम्भावित अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लेना जो सजग है, जागृत है, आत्मचेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह ही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, परिणाम हमारे लिये या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस अपने अन्दर झाँक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी बात का विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण गन्दगी को देख सकता है। आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब को सम्पादित करने के पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के यही है कि हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, साथ विचार करते हैं तो आप विवेकशील माने जा सकते हैं। जिसमें भावावेशों, विषय-विकारों, राग-द्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वही लोभादि कषायों के प्रति सजग रहें, सावधान रहें, उन्हें देखते रहें। विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे ऐसे विचारक हैं, के हिताहितों पर पूर्व में विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता (Selfawarenessही एक ऐसी नहीं कहला सकता। यह बात बहुत स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक स्थिति है जिसे किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा माना जा सकता है। यद्यपि यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हो सकेगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना मनुष्य हिंसादि कर्म धार्मिक या नैतिक होगा? वस्तुत: इस सम्बन्ध में हमें का एक महत्त्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का एक भ्रांति को दूर कर लेना चाहिए। व्यक्ति जितना आत्म-चेतन बनता विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुत: जहाँ Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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