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________________ ३५२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा मानव धर्म निज-धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकुलता का मतलब है आत्मा की 'पर' धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से (पदार्थों) में उन्मुखता और निराकुलता का मतलब है 'पर' से विमुख विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या है? होकर स्व में स्थिति। इसीलिए जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म और आत्म-परिणति को धर्म कहा गया है। क्या है? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक आधारों से चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज-धर्म या स्व-स्वभाव अलग कर सकते हैं, वे हैं- आत्मचेतनता, विवेकशीलता और इसीलिए है कि यह हमारी स्वाभाविक माँग है, स्वाश्रित है अर्थात् आत्मसंयम। मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिन्ता, आपके देखा जाता है। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है। उसकी मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति की अथवा पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए की भाव-दशा में होता है तब भी वह यह जानता है कि मुझे क्रोध स्वधर्म है, जबकि ममता और तज्जनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किन्तु वह विधर्म है, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वही आनन्द को यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूँ। उसका व्यवहार काम से प्रेरित प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनन्द और होता है किन्तु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार को प्रेरित शान्ति कहाँ? यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि पदार्थों के प्रति कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र ममत्वभाव और उनके उपभोग में अन्तर है। धर्म उनके उपभोग का मूलप्रवृत्यात्मक (Instinctive) है; जो अंध प्रेरणा मात्र है, किन्तु मनुष्य विरोध नहीं करता है अपितु उनके प्रति ममत्वं-बुद्धि या ममता के का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता भाव का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना, मान लेना है। उसमें आत्मचेतनता है। अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का मनुष्य और पशु में सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर आत्मचेतनता के समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते हैं। इसे भी सम्बन्ध में है। जहाँ भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल-प्रवृत्ति या शास्त्रों में अनात्म में आत्म-बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस अन्ध प्रेरणा से चालित होता है वहाँ मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम होता है, ऐसा मानना चाहिये। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता हो। उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना ही दुःख यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता का कारण है और जो दु:ख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कही है द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता है कि कर्ता और द्रष्टा दोनों सुख-दुःख दोनों एक से, मान और अपमान । की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक चित्त विचलित होये नहीं, तो सच्चा कल्याण ।। दोनों ही है। उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने जीवन में आते रहें, पतझड़ और बसन्त । दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता मन की समता न छूटे, तो सुख-शान्ति अनन्त ।। अथवा द्रष्टा-भाव या साक्षी-भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते विषम जगत में चित्त की, समता रहे अटूट । हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों में छूट ।। और पशु दोनों ही उपस्थित हैं। वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छटेगी तो समता सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और अपने आप आ जायेगी। स्वभाव बाहरी नहीं है, अत: उसे लाना भी जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अन्ध प्रवाह नहीं है, मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बिमारी हटेगी तो स्वस्थता में बहता है, उतना ही पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा तो आयेगी ही। इसलिए प्रयत्न बिमारी को हटाने के लिए करना है। के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशुता के निकट ले जाता जिस प्रकार बिमारी बनी रहे और आप पृष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि एक वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता मनुष्य के रूप में आत्मचेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता आत्मचेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जायेगा। जब सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों मोह और ममता की चट्टानें टूटेंगी तो समता के शीतल जल का झरना का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है, क्योंकि वह स्वत: ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल आत्मचेतन होना या आत्मद्रष्टा होना ऐसा आधार है जिससे मानवीय हो जायेगा। विवेक और सदाचरण का विकास सम्भव है। बीमारी से छुटकारा पाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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