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________________ जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण स्वतन्त्रता की सम्भावनाएं सर्वाधिक विकसित हैं। अपने मानसिक जगत् जैन विचारणा में गृहस्थ उपासक के लिए उद्योग, व्यवसाय एवं जीवनके क्षेत्र में व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्र है। इस स्तर पर परी रक्षण के लिए भी त्रस प्राणियों की हिंसा का निषेध किया गया है। तरह से अहिंसा का पालन अधिक सहज एवं सम्भव है। बाह्य स्थितियां लेकिन जब व्यक्ति शरीर और सम्पत्ति के मोह से ऊपर उठ जाता इस स्तर पर हमें प्रभावित कर सकती है, लेकिन शासित नहीं कर है तो वह पूर्ण अहिंसा की दिशा में और आगे बढ़ जाता है। जहां सकती। व्यक्ति स्वयं अपने विचारों का स्वामी होता है, अत: इस तक श्रमण साधक या संन्यासी का प्रश्न है, वह निष्परिग्रही होता है, स्तर पर अहिंसक होना सभी के लिए आवश्यक है। व्यावहारिक दृष्टि उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता अत: वह सर्वतोभावेन हिंसा से संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। यह न तो जीवन के रक्षण के विरत होने का व्रत लेता है। शरीरधारण मात्र के लिए कुछ अपवादों के लिए है और न जीवन-निर्वाह के लिए है, अत: इसे सभी के को छोड़कर वह संकल्पपूर्वक और विवशतावश दोनों ही परिस्थितियों द्वारा छोड़ा जा सकता है। में त्रस और स्थावर की हिंसा से पूर्ण विरत हो जाता है। मुनि नथमलजी हिंसा का दूसरा रूप विरोधजा है। यह प्रत्याक्रमण या सुरक्षात्मक के शब्दों में कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुँच सकता। है। स्व एवं पर के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए इसे करना वह धीमे-धीमे आगे बढ़ता है। भगवान् महावीर ने अहिंसा की पहुँच पड़ता है। इसमें बाह्य परिस्थितिगत तत्त्वों का प्रभाव प्रमख होता है। के कुछ स्तर निर्धारित किये हैं। वे वस्तुस्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने बाह्य स्थितियां व्यक्ति को बाध्य करती हैं कि वह अपने एवं अपने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया-(१) संकल्पजा. (२) विरोधजा साथियों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए प्रत्याक्रमण के रूप और (३) आरम्भजा। संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। वह सबके में हिंसा करे। जो भी व्यक्ति शरीर एवं अन्य भौतिक संस्थानों पर लिए सर्वथा परिहार्य है। विरोधजा हिंसा प्रत्याक्रमण हिंसा है। उसे अपना स्वत्व रखना चाहते हैं, अथवा जो भी अपने और अपने साथियों छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक संस्थानों पर अपना अस्तित्व के अधिकारों में आस्था रखते हैं, इस विरोधजा हिंसा को छोड़ने में रखना चाहता है। आरम्भजा हिंसा आजीविकात्मक हिंसा है। उसे छोड़ने असमर्थ हैं। गृहस्थ उपासक हिंसा के इस रूप को पूरी तरह छोड़ में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन-संरक्षण द्वारा पाने में असमर्थ होते हैं क्योंकि वे शरीर एवं अन्य भौतिक वस्तुओं अपना जीवन चलाना चाहते हैं (तट दो, प्रवाह एक, पृष्ठ ४०)। पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं। इसी प्रकार शासक वर्ग एवं राजनैतिक प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत होकर नेता जो मानवीय अधिकारों में एवं राष्ट्रीय हितों में आस्था रखते हैं, की जानेवाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें; फिर दूसरे इसे पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ हैं। स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होने वाली त्रस आधुनिक युग में गांधी एक ऐसे विचारक अवश्य हैं, जिन्होंने प्राणियों की हिंसा से विरत होवें; तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक विरोध का अहिंसक तरीका प्रस्तुत किया और उसमें सफलता भी प्राप्त तरीके को अपना कर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत होवें। इस प्रकार की। किन्त अहिंसक के रूप में विरोध कर पाना, उसमें सफलता प्राप्त जीवन के लिये आवश्यक बनी हुई हिंसा से क्रमशः ऊपर उठते हए कर लेना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। अहिंसक रीति से अधिकारों चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह की आसक्ति का परित्याग कर का संरक्षण करने में वही व्यक्ति सफल हो सकता है जिसे शरीर के सर्वतोभावेन पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ें। प्रति मोह न हो, पदार्थों में आसक्ति न हो और जिसके हृदय में विद्वेष इस प्रकार पूर्ण अहिंसा का आदर्श पूर्णतया अव्यावहारिक नहीं का भाव न हो। यही नहीं, अहिंसक रीति से अधिकारों के संरक्षण रहता है। व्यक्ति जैसे-जैसे सम्पत्ति और शरीर के मोह से ऊपर उठता की कल्पना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज में ही सम्भव हो जाता है अहिंसा का आदर्श उसके लिए व्यवहार्य बनता जाता है। सकती है। यदि विरोधी पक्ष मानवीय स्तर पर हो, तब तो अहिंसक- पूर्ण अनासक्त जीवन में पूर्ण अहिंसा व्यवहार्य बन जाती है। यद्यपि विरोध सफल हो जाता है, लेकिन यदि विरोधी पक्ष पाशविक स्तर यह ध्यान रखना होगा कि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श पर हो तो अहिंसक विरोध की सफलता सन्देहास्पद बन जाती है। ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पावेगी। जब शरीर के संरक्षण का मोह पुन: मानव में मानवीय गुणों की सम्भावना की आस्था ही अहिंसक समाप्त होगा तभी वह आदर्श यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा। विरोध का केन्द्रीय तत्त्व है। मानवीय गुणों में हमारी आस्था जितनी फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर बलशाली होगी और विरोधी में मानवीय गुणों का जितना अधिक प्रकटन है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही होगा, अहिंसक-विरोध की सफलता भी उतनी ही अधिक होगी। क्यों न हो, यह कथमपि सम्भव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के जहां तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा का प्रश्न है, एक गृहस्थ आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके। शरीर के लिए आहार आवश्यक उपासक उससे नहीं बच सकता क्योकि जब तक शरीर और सम्पत्ति है, कोई भी आहार बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगा। चाहे हमारा का मोह है, आजीविका का अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की मुनिवर्ग यह कहता भी हो कि हम औद्देशिक आहार नहीं लेते हैं किंतु पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं। इस स्तर पर हिंसा को त्रस प्राणियों की क्या उनकी विहार-यात्रा में साथ चलने वाला पूरा लवाजिमा, सेवा हिंसा और स्थावर प्राणियों की हिंसा, इन दो भागों में बांटा जा सकता में रहने के नाम पर लगने वाले चौके औद्देशिक नहीं? जब समाज है और व्यक्ति अपने को त्रस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या सन्ध्याकालीन गोचरी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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