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________________ ३१० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ की होती है। अत: जिन प्राणियों की प्राणसंख्या अर्थात् जैविक शक्ति बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक विचार किया है। वह यह मानती है कि अधिक विकसित है, उनकी हिंसा अधिक निकृष्ट है। पुनः हिंसा में किन्हीं अपवादात्मक अवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार स्तर भेद स्वीकार करके ही अहिंसा को विधायक रूप दिया जा सकता में है, जो आन्तरिक है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और है। हिंसा और अहिंसा के सम्बन्ध में यह प्रश्न इसलिए भी अधिक बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वैत-दृष्टि उसे स्वीकार्य महत्त्वपूर्ण बन गया कि इसका सीधा सम्बन्ध मांसाहार और शाकाहार नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्त: में अहिंसकवृत्ति के होते हुए बाह्य रूप के प्रश्न से जुड़ा हुआ था। यदि हम शाकाहार का समर्थन करना चाहते में हिंसक आचारण कर पाना एक प्रकार की भ्रांति है, छलन है, हैं तो हमें यह मानना होगा कि हिंसा-अहिंसा के सम्बन्ध में संख्या आत्मा-प्रवंचना है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है कि 'यदि हृदय का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है उसका ऐन्द्रिक और पापमुक्त हो तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता आध्यात्मिक विकास। मात्र यही नहीं, सूत्रकृतांग में अल्प आरम्भ है' यह एक मिथ्या धारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्त: (अल्पहिंसा) युक्त गृहस्थ धर्म को भी एकान्त सम्यक् कहकर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को एक दूसरी ही दिशा प्रदान की गई। अहिंसा है तो जैन विचारणा का स्पष्ट रूप से उसके साथ विरोध है। जैन का सम्बन्ध बाहर की अपेक्षा अन्दर से जोड़ा जाने लगा। हिंसा-अहिंसा विचारणा कहती है कि अन्त: में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा के विवेक में बाह्य घटना की अपेक्षा साधक की मनोदशा को अधिक की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा किया जाना महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा। यद्यपि सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक विशुद्धि के होते हुए में बौद्ध धर्म की इस धारणा की आलोचना की गई है कि 'हिंसा-अहिंसा हिंसात्मक कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं है (सूत्रकृतांग, २/६/३५)। का प्रश्न व्यक्ति की मनोदशा के साथ जुड़ा हुआ, है न कि बाह्य घटना वस्तुत: हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन दृष्टि का सार यह है पर।' किन्तु हम देखते हैं कि जैन परम्परा के परवर्ती ग्रंथों में मनोदशा कि हिंसा चाहे बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचारण का नियम नहीं को ही हिंसा-अहिंसा के विवेक का आधार बनाया गया है। जहाँ हो सकती है। दूसरे, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना द्रव्य-हिंसा (बाह्य घटना) और भाव-हिंसा (मनोदशा) का प्रश्न सामने मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य हो सकती है। हिंसा आया वहाँ यह माना जाने लगा कि भाव हिंसा ही वास्तविक हिंसा का हेतु मानसिक प्रवृत्तियां, कषायें हैं, यह मानना तो ठीक है, लेकिन है। भगवती (७/१/६-७), प्रवचनसार (३/१७), ओघनियुक्ति यह मानना कि मानसिक-वृत्तियों या कषायों के अभाव में की गई (७४८-७५८), निशीथचूर्णि (९२) आदि ग्रन्थों में एक स्वर से यह द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, यह उचित नहीं कहा जा सकता। यह ठीक बात स्वीकार की गई है कि जो अप्रमत्त और कषायरहित है, उसके है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट है, लेकिन संकल्प के अभाव द्वारा बाह्य रूप से होनेवाली हिंसा वस्तुत: हिंसा नहीं है। यह भी माना में होने वाली हिंसा हिंसा नहीं है या उससे कर्म-आस्रव नहीं होता गया कि जिस हिंसा में हिंसा करते हुए जितनी मनोभावों की क्रूरता है, यह जैन कर्म सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। व्यावहारिक जीवन अपेक्षित है वह हिंसा उतनी निकृष्ट कोटि की है। वनस्पति की हिंसा में हमें इसको हिंसा मानना होगा। की अपेक्षा पशु की हिंसा में और पशु की हिंसा की अपेक्षा मनुष्य की हिंसा में अधिक क्रूरता अपेक्षित है। अत: हिंसक भावों या कषायों पूर्ण अहिंसा के आदर्श की संभावना का प्रश्न की तीव्रता के कारण मनुष्य की हिंसा अधिक निकृष्ट कोटि की होगी। यद्यपि अन्त: और बाह्य रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श की . इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा-अहिंसा का विवेक रखते समय उपलब्धि जैन विचारणा का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस बाह्य घटना पर ही नहीं वरन् कर्ता की मनोवृत्ति पर भी विचार करना आदर्श की उपलब्धि सहज नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक आदर्श होता है। है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसकी पूर्ण उपलब्धि सम्भव है लेकिन व्यक्ति का वर्तमान जीवन अध्यात्म और भौतिकता का एक सम्मिश्रण अहिंसा के बाह-पक्ष की अवहेलना उचित नहीं है। जीवन के आध्यात्मिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा सम्भव है लेकिन यह ठीक है कि हिंसा-अहिंसा के विचार में भावात्मक या आन्तरिक भौतिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है। अहिंसक पहलू महत्त्वपूर्ण है किन्तु बाह्य पक्ष को अवहेलना उचित नहीं है। जीवन की सम्भावनाएं भौतिक स्तर से ऊपर उठने पर विकसित होती वैयक्तिक साधनाकी दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक पक्ष ही सर्वाधिक हैं- व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता के स्तर से ऊपर उठता जाता है, मूल्यवान् होता है। लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन का अहिंसक जीवन की पूर्णता की दिशा में बढ़ता जाता है। इसी आधार प्रश्न है वहाँ हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को झुठलाया पर जैन विचारणा में अहिंसा की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ स्तर नहीं जा सकता। क्योंकि व्यावहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था निर्धारित किये गये हैं। की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है वह तो आचरण हिंसा का यह रूप जिसे संकल्पजा हिंसा कहा जाता है, का बाह्य-पक्ष ही है। सभी के लिये त्याज्य है। संकल्पजा हिंसा हमारे वैचारिक या मानसिक गीता और बौद्ध आचार दर्शन की अपेक्षा जैन विचारणा ने इस जगत् पर निर्भर है। मानसिक संकल्प के कर्ता के रूप में व्यक्ति में 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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