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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न २८७ पार्श्व का सचेल धर्म तो नग्न ही थे, किन्तु पास में वस्त्र रखते थे, जिसे आवश्यकता होने . पार्श्व के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनमें भी प्राचीनता पर ओढ़ लेते थे।२९ किन्तु पण्डितजी की यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं की दृष्टि से ऋषिभाषित (लगभग ई०पू० चौथी-पाँचवीं शती), सूत्रकृतांग है क्योंकि संतरुत्तर से नग्नता किसी भी प्रकार फलित नहीं होती है। (लगभग तीसरी-चौथी शती), उत्तराध्ययन (ई०पू० दूसरी शती), वस्तुत: संतरुत्तर शब्द का प्रयोग आचारांग में तीन वस्त्र रखने वाले आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई०पू० दूसरी शती) एवं भगवती (ई०पू० साधुओं के सन्दर्भ में हुआ है और उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि दूसरी शती से लेकर ईसा की दूसरी शती तक) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण ग्रीष्म ऋतु के आने पर वे एक जीर्ण-वस्त्र को छोड़कर संतरुत्तर अर्थात् हैं। इनमें भी ऋषिभाषित और सूत्रकृतांग में पार्श्व की वस्त्र-सम्बन्धी दो वस्त्र धारण करने वाले हो जायें। अत: संतरुत्तर होने का अर्थ मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन का तेईसवाँ ___ अन्तरवासक और उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र रखना है। अन्तरवस्त्र आजकल अध्ययन ही एकमात्र ऐसा आधार है, जिसमें महावीर के धर्म को अचेल का अंडरवियर अर्थात् गुह्यांग को ढकने वाला वस्त्र है। उत्तरीय शरीर एवं पार्श्व के धर्म को सचेल या संत्तरुत्तर कहा गया है। इससे यह के ऊपर के भाग को ढकने वाला वस्त्र है। 'संतरुत्तर' की शीलांक स्पष्ट है कि वस्त्र के सम्बन्ध में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भिन्न की यह व्याख्या भी हमें यही बताती है कि उत्तरीय कभी ओढ़ लिया थीं। उत्तराध्ययन की प्राचीनता निर्विवाद है और उसके कथन को जाता था और कभी पास में रख लिया जाता था, क्योकि गर्मी में अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पुनः नियुक्ति, भाष्य आदि परवर्ती सदैव उत्तरीय ओढ़ा नहीं जाता था। अत: संतरुत्तर का अर्थ कभी सचेल आगमिक व्याख्याओं से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, अत: इस हो जाना और कभी वस्त्र को पास में रखकर अचेल हो जाना नहीं कथन की सत्यता में सन्देह करने का कोई स्थान शेष नहीं रहता है। है। यदि संतरुत्तर होने का अर्थ कभी सचेल और कभी अचेल (नग्न) किन्तु पार्श्व की परम्परा के द्वारा मान्य 'सांतरुत्तर' शब्द का क्या अर्थ होना होता तो फिर अल्पचेल और एकशाटक होने की चर्चा इसी प्रसंग है- यह विचारणीय है। सांतरुत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती श्वेताम्बर में नहीं की जाती। तीन वस्त्रधारी साधु एक जीर्ण वस्त्र का त्याग करने आचार्यों ने विशिष्ट, रंगीन एवं बहुमूल्य वस्त्र किया है। उत्तराध्ययन पर सांतरुत्तर होता है। एक जीर्ण वस्त्र का त्याग और दूसरे जीर्ण वस्त्र की टीका में नेमिचन्द्र लिखते हैं- सान्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी के जीर्ण भाग को निकालकर अल्प आकार का बनाकर रखने पर की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामूल्यवान् अल्पचेल, दोनों जीर्ण वस्त्रों का त्याग करने पर एकशाटक अथवा होने से प्रधान, ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किये जायें वह धर्म ओमचेल और तीनों वस्त्रों का त्याग करने पर अचेल होता है। वस्तुत: सान्तरोत्तर है। १५ किन्तु सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) शब्द का यह अर्थ समुचित आज भी दिगम्बर परम्परा का क्षुल्लक सान्तरोत्तर है और ऐलक नहीं है। वस्तुत: जब श्वेताम्बर आचार्य अचेल का अर्थ कुत्सितचेल एकशाटक तथा मुनि नग्न (अचेल) होता है। अतः पार्श्व की सचेल या अल्पचेल करने लगे१६, तो यह स्वाभाविक था कि सान्तरोत्तर का सान्तरोततर परम्परा में मुनि दो वस्त्र रखते थे- अधोवस्त्र और उत्तरीय। अर्थ विशिष्ट, महामूल्यवान् रंगीन वस्त्र किया जाएं, ताकि अचेल के उत्तरीय आवश्यकतानुसार शीतकाल आदि में ओढ़ लिया जाता था परवर्ती अर्थ में और संतरुत्तर के अर्थ में किसी प्रकार से संगति स्थापित और ग्रीष्मकाल में अलग रख दिया जाता था। की जा सके। किन्तु संतरुत्तर का यह अर्थ शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि आचारांग के नवें उपधानश्रुत नामक अध्याय में महावीर का से उचित नहीं है। इससे इन टीकाकारों की अपनी साम्प्रदायिक जीवनवृत्त वर्णित है। ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर की जीवन-गाथा मानसिकता ही प्रकट होती है। संतरुत्तर के वास्तविक अर्थ को आचार्य के सम्बन्ध में इससे प्राचीन एवं प्रामाणिक अन्य कोई सन्दर्भ हमें उपलब्ध शीलांक ने अपनी आचारांग टीका में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया नहीं है। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, भगवती और बाद है। ज्ञातव्य है कि संतरुत्तर शब्द उत्तराध्ययन के अतिरिक्त आचारांग के सभी महावीर के जीवन-चारित्र सम्बन्धी ग्रन्थ इससे परवर्ती हैं और के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी आया है। १८ आचारांग में इस शब्द का प्रयोग उनमें महावीर के जीवन के सथ जुड़ी अलौकिकताएँ यही सिद्ध करती उन निम्रन्थ मुनियों के सन्दर्भ में हुआ है, जो दो वस्त्र रखते थे। उसमें हैं कि वे महावीर की जीवन-गाथा का अतिरंजित चित्र ही उपस्थित तीन वस्त्र रखने वाले मूनियों के लिये कहा गया है कि हेमन्त के करते हैं। इसलिये महावीर के जीवन के सम्बन्ध में जो भी तथ्य हमें बीत जाने पर एवं ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर यदि किसी भिक्षु के उपलब्ध हैं, वे प्रामाणिक रूप में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के * जीर्ण हो गये हों तो वह उन्हें स्थापित कर दे अर्थात् छोड़ दे । इसी उपधानश्रुत में उपलब्ध हैं। इसमें महावीर के दीक्षित होने का और सांतरोत्तर अथवा अल्पचेल (ओमचेल) अथवा एकशाटक अथवा जो विवरण है उससे यह ज्ञात होता है कि वे एक वस्त्र लेकर दीक्षित अचेलक हो जाये।१९ यहाँ संतरुत्तर की टीका करते हुए शीलांक कहते हुए थे और लगभग एक वर्ष से कुछ अधिक समय के पश्चात् उन्होंने हैं कि अन्तर-सहित है उत्तरीय (ओढ़ना) जिसका, अर्थात् जो वस्त्र उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया और पूर्णत: अचेल हो गये।२२ को आवश्यकता होने पर कभी ओढ़ लेता है और कभी पास में रख महावीर के जीवन की यह घटना ही वस्त्र के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जैन लेता है।२० परम्परा के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है। इसका तात्पर्य इतना ही पं० कैलाशचन्द्रजी ने संतरुत्तर की शीलांक की उपरोक्त व्याख्या है कि महावीर ने अपनी साधना का प्रारम्भ सचेलता से किया, किन्तु से यह प्रतिफलित करना चाहा है कि पार्श्व के परम्परा के साधु रहते कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने पूर्ण अचेलता को ही अपना आदर्श माना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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