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________________ २८६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अचेल होकर ही दीक्षित होते है, वहाँ श्वेताम्बर ग्रन्थ यह कहते हैं उनसे भी इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि नग्न एवं मलिन वस्त्र कि सभी जिन एक देवदूष्य वस्त्र लेकर ही दीक्षित होते हैं। मेरी दृष्टि धारण करने वाले श्रमणों/योगियों/व्रात्यों की एक परम्परा प्राचीन भारत में ये दोनों ही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त हैं। श्वेताम्बर में अस्तित्व रखती थी। उस परम्परा के अग्र-पुरुष के रूप में ऋषभ और यापनीय परम्परा के अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में स्पष्ट या शिव को माना जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि इन रूप से यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और अन्तिम सीलों में उस योगी को मुकुट और आभूषणों से युक्त दर्शाया गया तीर्थङ्कर महावीर की आचार-व्यवस्था मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों की है जिससे उसके नग्न निर्ग्रन्थ मुनि होने के सम्बन्ध में बाधा आती आचार-व्यवस्था से भिन्न थी। यापनीय ग्रन्थ मूलाचार प्रतिक्रमण आदि है। ये अंकन श्वेताम्बर तीर्थङ्कर मूर्तियों से आंशिक साम्यता रखते । के सन्दर्भ में उनकी इस भिन्नता का तो उल्लेख करता है किन्तु मध्यवर्ती हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्तियों को आभूषण पहनाते हैं। तीर्थङ्कर सचेल धर्म के प्रतिपादक थे, यह नहीं कहता है। जबकि श्वेताम्बर आगम उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से यह भी उल्लेख है कि अन्तिम ऋषभ का अचेल धर्म तीर्थङ्कर महावीर ने अचेल धर्म का प्रतिपादन किया, जबकि तेईसवें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में ऋषभ के नाम तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने सचेल धर्म का प्रतिपादन किया था। यहाँ यह का उल्लेख मात्र है, उनके जीवन के सन्दर्भ में कोई विवरण नहीं भी ज्ञातव्य है कि बृहत्कल्पभाष्य में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को है। इससे अपेक्षाकृत परवर्ती कल्पसूत्र एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ही अचेल धर्म और मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों को सचेल-अचेल धर्म का सर्वप्रथम उनका जीवनवृत्त मिलता है, फिर भी इनमें उनकी साधना प्रतिपादक कहा गया है। यद्यपि उत्तराध्ययन स्पष्टतया पार्श्व के धर्म एवं आचार-व्यवस्था का कोई विशेष विवरण नहीं है। परवर्ती श्वेताम्बर, को 'सचेल' अथवा सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) ही कहता है, सचेल-अचेल दिगम्बर ग्रन्थों में और उनके अतिरिक्त हिन्दू पुराणों तथा विशेषरूप नहीं। 'मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में भी अचेल मुनि होते थे, से भागवत में ऋषभदेव के द्वारा अचेलकत्व के आचरण के जो उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य की यह स्वीकारोक्ति उसकी सम्प्रदाय-निरपेक्षता की ही मिलते हैं, उन सबके आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि सूचक है। यद्यपि दिगम्बर और यापनीय परम्परा श्वेताम्बर मान्य आगमों ऋषभदेव अचेल परम्परा के पोषक रहे होंगे। ११ ऋषभ अचेल धर्म के एवं आगमिक व्याख्याओं के इन कथनों को मान्य नहीं करती हैं, किन्तु प्रवर्तक थे, यह मानने में सचेल श्वेताम्बर परम्परा को भी कोई आपत्ति हमें श्वेताम्बर आगमों के इन कथनों में सत्यता परिलक्षित होती है, नहीं है क्योकि उसकी भी मान्यता यही है कि ऋषभ और महावीर क्योंकि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से भी इन कथनों की बहुत कुछ पुष्टि दोनों ही अचेल धर्म के सम्पोषक थे।१२ हो जाती है। ___ऋषभ के पश्चात् और अरिष्टनेमि के पूर्व मध्य के २० तीर्थङ्करों यहाँ हमारा उद्देश्य सम्प्रदायगत मान्यताओं से ऊपर उठकर मात्र के जीवनवृत्त एवं आचार-विचार के सम्बन्ध में छठी शती के पूर्व अर्थात् प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ही इस समस्या पर विचार सम्प्रदायों के स्थिरीकरण के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं करना है। अत: इस परिचर्चा में हम परवर्ती अर्थात् साम्प्रदायिक है। अर्धमागधी आगमों में मात्र समवायांग में और शौरसेनी के मान्यताओं के दृढ़ीभूत होने के बाद के ग्रन्थों को आधार नहीं बना आगम-तुल्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में उनके नाम, माता-पिता, जन्म-मरण आदि सम्बन्धी छिटपुट सूचनाएँ हैं, जो प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उपयोगी महावीर से पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों में मात्र ऋषभ, अरिष्टनेमि और पार्श्व नहीं हैं। के कथानक ही ऐसे हैं, जो ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। यद्यपि इनमें इस प्रकार मध्यवर्ती बाईसवें अरिष्टनेमि एवं तेईसवें पार्श्व ही भी ऋषभ और अरिष्टनेमि के कथानक प्रागैतिहासिक काल के हैं। वेदों ऐसे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उत्तराध्ययन के क्रमश: बाईसवें एवं से भी हमें इनके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी (नामोल्लेख के तेईसवें अध्ययन में मिलती हैं, किन्तु उनमें भी बाईसवें अध्ययन में अतिरिक्त) नहीं मिलती है। वेदों में भी ये नाम किस सन्दर्भ में प्रयुक्त अरिष्टनेमि की आचार-व्यवस्था का और विशेष रूप से वस्त्र-ग्रहण हुए हैं, और किसके वाचक है, यह तथ्य, आज भी विवादास्पद ही सम्बन्धी परम्परा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययन के बाईसवें है। इन दोनों के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जैन एवं जैनेतर स्रोतों से अध्ययन में राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना भी जो सामग्री उपलब्ध होती है वह ईसा की प्रथम शती के पूर्व की वस्त्र सुखाने का उल्लेख होने से केवल एक ही तथ्य की पुष्टि होती नहीं है। है कि अरिष्टनेमि की परम्परा में साध्वियाँ सवस्त्र होती थीं। १३ उस वेदों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्रात्यों एवं वातरशना मुनियों के जो गुफा में साधना में स्थित रथनेमि सवस्त्र थे या निर्वस्त्र, ऐसा कोई उल्लेख हैं', उनसे इतना तो अवश्य फलित होता है कि प्रागैतिहासिक स्पष्ट संकेत इसमें नहीं है। अत: वस्त्र-सम्बन्धी विवाद में केवल पार्श्व काल में नग्न अथवा मलिन एवं जीर्णवस्त्र धारण करने वाले श्रमणों एवं महावीर इन दो ऐतिहासिक काल के तीर्थङ्गरों के सम्बन्ध में ही की एक परम्परा अवश्य थी। सिन्धुघाटी-सभ्यता की मोहन-जोदड़ो जो कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही चर्चा की जा एवं हड़प्पा से जो नग्न योगियों के अंकन वाली सीलें प्राप्त हुई हैं सकती है। Jain Education 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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