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________________ गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही आलोचना की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम और वरीयता पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित हों, वहाँ सामान्य साधु या गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं करनी चाहिए। आचार्य के उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए। आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की अनुपस्थिति में सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान वेश धारक साधु के समक्ष आलोचना करे। उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा - पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित हो तो उसके समक्ष आलोचना करे। उसके अभाव में सम्यक्त्व भावित अन्तःकरण वाले के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीव के समक्ष आलोचना करे। यदि सम्यक्त्वभावी अन्त:करण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना करे।" जैन धर्म में प्रायश्चित एवं दण्ड व्यवस्था आलोचना सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी तथ्य ध्यान देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो । स्थानाङ्ग, मूलाचार, भगवती-आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख हुआ है।" (१) आकम्पित दोष आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है कुछ विद्वानों के अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है कांपते हुए आलोचना करना, जिससे प्रायश्चित्तदाता कम से कम प्रायश्चित्त दे। (२) अनुमानित दोष - भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना करना अनुमानित दोष है। ऐसा 'अल्प प्रायश्चित्त मिले इस भावना से किया जाता है। - - (३) अग्रह गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया हो उसकी तो आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलोचना न करना यह अद्रष्ट दोष है। (४) बादर दोष-बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे दोषों की आलोचना न करना बादर दोष है। (५) सूक्ष्म दोष - छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है। (६) छन दोष आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे पूरी तरह सुन ही न सके, यह छन्न दोष है । कुछ विद्वानों के अनुसार आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले लेना छत्र दोष है। Jain Education International (७) शब्दाकुलित दोष कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना करना जिससे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह शब्दाकुलित दोष है। दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है। (८) बहुजन दोष एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित दे उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। (९) अव्यक्त दोष- दोषों को पूर्णरूप से स्पष्ट न कहते हुए उनकी आलोचना करना अव्यक्त दोष है। २७३ - (१०) तत्सेवी दोष - जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे को प्रायश्चित्त देने का अधिकारी ही नहीं है। दूसरे, ऐसा व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी नहीं दे पाता । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाथायों ने आलोचना के सन्दर्भ में उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे वहाँ देखने की अनुशंसा की जाती है। आलोचना योग्य कार्य जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक कार्य हैं, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पादित होने पर तो निर्दोष होते हैं, किन्तु छद्मस्थ श्रमणों द्वारा सम्पादित इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से ही मानी गयी है। जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, गमनागमन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवन्दन आदि सभी क्रियाएँ आलोचना के योग्य है। इन्हें आलोचना योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगतापूर्वक अप्रमत्त होकर किया या नहीं। क्योंकि प्रमाद के कारण दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की दूरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचना के विषय माने गये हैं। इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना करने पर ही साधक निर्दोष होता है। गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये हैं? इसके साथ ही किसी कारणवश या अकारण ही स्व-गण का परित्याग कर पर गण में प्रवेश करने को अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना का विषय माना गया है। ईर्ष्या आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, वे देश-काल-परिस्थिति और व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आदि प्रायश्चित्त के भी योग्य हो सकते हैं। For Private & Personal Use Only प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है अपराध या नियमभङ्ग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस लौट आना www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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