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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ एक विचारणीय प्रश्न है। योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह होता है कि वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचा सकता (२) प्रमाद-प्रतिसेवना - प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत होकर है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। अत: जैनाचार्यों जो व्रत भङ्ग किया जाता है, वह प्रमाद-प्रतिसेवना है। ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अनैतिक लाभ न ले। स्थानाङ्ग सूत्र" के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना २७२ (१) दर्प प्रतिसेवना- आवेश अथवा अहङ्कार के वशीभूत होकर जो हिंसा आदि करके व्रत भङ्ग किया जाता है वह दर्पप्रतिसेवना है (३) अनाभोग- प्रतिसेवना- स्मृति या सजगता के अभाव में अभक्ष्य या नियम विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोगप्रतिसेवना है। (४) आतुर - प्रतिसेवना - भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर चाहिए - किया जाने वाला व्रत भङ्ग आतुर प्रतिसेवना है। (५) आपात प्रतिसेवना किसी विशिष्ट परिस्थिति के उत्पन्न होने पर व्रत भङ्ग या नियम विरुद्ध आचरण करना आपात - प्रतिसेवना है। - (६) शङ्कित प्रतिसेवना-शङ्का के वशीभूत होकर जो नियमभङ्ग किया जाता है, उसे शङ्कित प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह व्यक्ति हमारा अहित करेगा, ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि कर देना। (७) सहसाकार प्रतिसेवना- अकस्मात् होने वाले व्रतभङ्ग या नियम - भङ्ग को सहसाकार प्रतिसेवना कहते हैं। - - (८) भय प्रतिसेवना- भय के कारण जो व्रत या नियम भन किया जाता है वह भय प्रतिसेवना है। (९) प्रदोष प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा उसका अहित करना प्रदोष प्रतिसेवना है। (१०) विमर्श प्रतिसेवना- शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भङ्ग करना विमर्श - प्रतिसेवना है। दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिए विचारपूर्वक व्रतभङ्ग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श या प्रतिसेवना है। Jain Education International इस प्रकार हम देखते हैं कि अपराध व्यक्ति केवल स्वेच्छा से जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थतिवश भी करता है। अतः उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है? आलोचना करने का अधिकारी कौन? आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है? इस सम्बन्ध में भी स्थानाङ्गसूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है। इसके अनुसार निम्न दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता है (१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, (४) ज्ञान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पन्न, (६) चारित्र सम्पन्न, (७) क्षान्त (क्षमासम्पन्न), (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी), (९) अमायावी ( मायाचार रहित) और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद उसका पश्चात्ताप न करने वाला)। आलोचना किसके समझ की जाये? आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए? यह भी (१) आचारवान् सदाचारी होना, आलोचना देने वाले व्यक्ति का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के अपराधों की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है जो अपने ही दोषों को शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को क्या दूर करेगा ? (२) आधारवान् अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है। (३) व्यवहारवान् - उसे आगम, श्रुत, जिनाज्ञा, धारणा और जीत इन पाँच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए क्योंकि सभी अपराधों एवं प्रायचितों की सूची आगमों में उपलब्ध नहीं है अतः आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिये जो स्वविवेक से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित का अनुमान कर सके। (४) अपनीडक आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म-आलोचन की शक्ति उत्पन्न कर सके । (५) प्रकारी - आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर सके। (६) अपरिश्रावी - उसे आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने प्रगट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके सामने आलोचना करने में संकोच करेगा। (७) निर्यापक आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए कि वह प्रायश्चित विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित करने वाला व्यक्ति घबराबर उसे आधे में ही न छोड़ दे उसे प्रायश्चित्त करने वाले का सहयोगी बनना चाहिए। - (८) अपायदर्शी अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। (९) प्रियधर्मा - अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्म-मार्ग में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। (१०) धर्मा - उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन समय में भी धर्म-मार्ग से विचलित न हो सके। जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की इन सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी माना For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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