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________________ जैन आचार में उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग २६९ हो, किसी साध्वी का बलपूर्वक अपहरण करना चाहता हो और वह के कारण शीलभंग करे तो इस स्थिति में शीलभंग करने वाले भिक्षु उपदेश से भी नहीं मानता हो तो ऐसी स्थिति में भिक्षु, आचार्य, संघ के मनोभावों को लक्ष्य में रखकर ही प्रायश्चित का निर्धारण किया अथवा साध्वी की रक्षा के लिए पुलाकलब्धि का प्रयोग करता हुआ जाता है। भी साधक संयमी माना गया है। जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर सर्वाधिक बल दिया। इसलिए सामान्यतया श्रमण साधक के लिए वानस्पतिक जीवों अथवा उन्होंने न केवल मैथुन-सेवन का निषेध किया अपितु भिक्षु के लिए अप्कायिक जीवों के स्पर्श का भी निषेध है किन्तु जीवन रक्षा के लिए नवजात कन्या का और भिक्षुणी के लिए नवजात शिशु का स्पर्श भी इन नियमों के अपवाद स्वीकार किये गये है। जैसे पर्वत से फिसलते वर्जित कर दिया। आगमों में उल्लेख है कि भिक्षुणी को कोई भी समय भिक्षु वृक्ष की शाखा या लता आदि का सहारा ले सकता है। पुरुष चाहे वह उसका पुत्र या पिता ही क्यों न हो, स्पर्श नहीं करे जल में बहते हुए साधु या साध्वी की रक्षा के लिए नदी आदि में किन्तु अपवाद रूप में यह बात स्वीकार की गई कि नदी में डूबती उतर सकता है। हुई या विक्षिप्त-चित्त भिक्षुणी को भिक्षु स्पर्श कर सकता है। इसी इसी प्रकार उत्सर्ग मार्ग में स्वामी की आज्ञा-बिना भिक्षु के लिए प्रकार सर्पदंश या कांटा लग जाने पर उसकी चिकित्सा का कोई अन्य एक तिनका भी अग्राह्य है। दशवैकालिक के अनुसार श्रमण अदत्तादान उपाय न रह जाने पर भिक्षु या भिक्षुणी परस्पर एक दूसरे की सहायता को न स्वयं ग्रहण कर सकता है, न दूसरों से ग्रहण करवा सकता कर सकते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि उक्त अपवाद ब्रह्मचर्य है और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही कर सकता है। के खण्डन से सम्बन्धित न होकर स्त्री-पुरुष के परस्पर स्पर्श से सम्बन्धित परन्तु परिस्थितिवश अपवाद मार्ग में भिक्षु के लिए अयाचित स्थान है। निशीथ भाष्य और बृहत्कल्पभाष्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता आदि ग्रहण के उल्लेख हैं। जैसे भिक्षु भयंकर शीतादि के कारण या है कि जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर कितनी गहराई से विचार हिंसक पशुओं का भय होने पर स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही ठहरने किया। जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि एक ओर व्यक्ति योग्य स्थान पर ठहर जाए तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा प्राप्त करने का शीलभंग नहीं करना चाहता किन्तु दूसरी ओर वासना का आवेग इतना प्रयत्न करे। तीव्र होता है कि वह अपने पर संयम नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति जहाँ तक ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अपवादों का प्रश्न है उस पर हमें में क्या किया जाये? दो दृष्टियों से विचार करना है। जहाँ अहिंसा, सत्य आदि व्रतों में ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध-विनाश अपवाद मार्ग का सेवन करने पर बिना तप-प्रायश्चित के भी विशुद्धि की नीति को भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में जैनाचार्यों ने यह सम्भव मानी गई है वहाँ ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में तप-प्रायश्चित के बिना उपाय भी बताया है कि ऐसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी को अध्ययन, लेखन, विशुद्धि को सम्भव नहीं माना गया है। ऐसा क्यों किया गया इस वैयावृत्य आदि कार्यों में इतना व्यस्त कर दिया जाये कि उसके पास सम्बन्ध में जैनाचार्यों का तर्क है कि हिंसा आदि में राग-द्वेषपूर्वक और काम-वासना जगने का समय ही न रहे। इस प्रकार उन्होंने काम-वासना रागद्वेष रहित दोनों ही प्रकार की प्रतिसेवना सम्भव है और यदि प्रतिसेवना पर विजय प्राप्त करने के उपाय भी बताए। रागद्वेष से रहित है तो उसके लिए विशेष प्रायश्चित नहीं है किन्तु सामान्यतया भिक्षु के लिए परिग्रह के पूर्णत: त्याग का विधान मैथुन का सेवन राग के अभाव में नहीं होता, अत: ब्रह्मचर्य व्रत की है और इसी आधार पर अचेलता की प्रशंसा की गई है। सामान्यतः स्खलना में तप-प्रायश्चित अपरिहार्य है। जिस स्खलना पर तप-प्रायश्चित आचारांग आदि सूत्रों में भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्र और अन्य का विधान हो उसे अपवाद मार्ग नहीं कहा जा सकता। निशीथ भाष्य । परिमित उपकरण रखने की अनुमति है किन्तु यदि हम मध्यकालीन के आधार पर पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि यदि जैन साहित्य का और साधु जीवन का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हिंसा आदि दोषों का सेवन संयम के रक्षण हेतु किया जाय तो तप लगता है कि धीरे-धीरे भिक्षु जीवन में रखने योग्य वस्तुओं की संख्या प्रायश्चित नहीं होता किन्तु अब्रह्मचर्य सेवन के लिए तो तप या छेद बढ़ती गई है। अन्य भी आचार सम्बन्धी कठोरतम नियम स्थिर नहीं प्रायश्चित आवश्यक है। रह सके हैं। अत: आपवादिक रूप में कई अकरणीय कार्यों का करना यद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत की स्खलना पर प्रायश्चित का विधान होने भी विहित मान लिया गया है जो सामान्यतया निन्दित माने जाते थे। में ब्रह्मचर्य का कोई अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु अपवाद मार्ग के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ भाष्य एवं निशीथ इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनाचार्यों ने उन सब परिस्थितियों पर चूर्णि आदि में उपलब्ध हैं। साथ ही पं० दलसुखभाई मालवणिया ने विचार नहीं किया है जिनमें कि जीवन की रक्षा अथवा संघ की प्रतिष्ठा अपने ग्रन्थ “निशीथ एक अध्ययन"११ में एवं उपाध्याय अमरमुनिजी को सुरक्षित रखने के लिए शीलभंग हेतु विवश होना पड़े। निशीथ ने निशीथ चूर्णि१२ के तृतीय भाग की भूमिका में इसका विस्तार से और बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि यदि ऐसा प्रसंग उपस्थित विवेचन किया है। इसी प्रकार निशीथ सूत्र हिन्दी विवेचन में भी उत्सर्ग हो जहाँ शीलभंग और जीवन-रक्षण में से एक ही विकल्प हो तो और अपवाद मार्ग का स्वरूप समझाया गया है। जिज्ञासु पाठक उसे ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ तो यही है कि व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करे और वहाँ देख सकते हैं। शीलभंग न करे, किन्तु जो मृत्यु को स्वीकार करने में असमर्थ होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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