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________________ २६८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का मूल सूत्रों में कोई विशेष निर्देश नहीं है। किन्तु नियुक्ति, भाष्य, मार्ग का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पन्न होने पर चूर्णि आदि में स्थान-स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह जो अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करता उसे जैन आचार्यों ने प्रायश्चित स्वीकार कर लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के का भागी बताया है किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद का अवलम्बन सन्दर्भ में विचारणा को अवकाश है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई साधक उस के विधानों में अपवादों की सृष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए सहज उपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है तो वह भी प्रायश्चित का भागी हो जाता है। उत्सर्ग और अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध में विचार होता है। कब उत्सर्ग का आचरण किया जाये और कब अपवाद का? करते हुए पं० जी पुन: लिखते हैं कि “संयमी पुरुष के लिए जितने इसका निर्णय देश कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामर्थ्य, भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये है, वे सभी “प्रतिषेध" के पर निर्भर होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषानीय अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार उसके को करने की “अनुज्ञा' दी जाती है, तब वे ही निषिद्ध कर्म “विधि' लिए अनैषणीय हो जाता है। बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि साधक किन्तु प्रतिषेध को विधि में परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य __कब अपवाद मार्ग का अवलम्बन करे? और इसका निश्चय कौन करे? और परीक्षण करना, साधारण साधक के लिए सम्भव नहीं है। अतएव जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की आवश्यकता अनुभव की और ये "अपवाद', "अनुज्ञा" या "विधि" सब किसी को नहीं बताये कहा कि गीतार्थ को ही यह अधिकार होता है कि वह साधक को जाते। यही कारण है कि “अपवाद' का दूसरा नाम "रहस्य' उत्सर्ग या अपवाद किसका अवलम्बन लेना है, निर्णय दे। जैन परम्परा (नि०चू०,गा०४९५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि में गीतार्थ उस आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति जिस प्रकार “प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण विशुद्ध माना जाता को सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद मार्ग पर चलने आदि छेदसूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो। साधक को उत्सर्ग और पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। (देखें निशीथ एक अपवाद में किसका अनुसरण करना है? इसके निर्देश का अधिकार अध्ययन, पृ० ५४) प्रशमरति में उमास्वातिर स्पष्ट रूप से कहते हैं गीतार्थ को ही है। जहाँ तक उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन कि परिस्थितिविशेष में जो भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि श्रेय है और कौन अश्रेय अथवा कौन सबल है और कौन निर्बल है? आदि ग्राह्य होती है वही परिस्थिति विशेष में अग्राह्य हो जाती है और इस समस्या के समाधान का प्रश्न है, जैनाचार्यों के अनुसार दोनों जो अग्राह्य होती है वही ग्राह्य हो जाती है, निशीथ भाष्य में स्पष्ट ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। आपवादिक रूप से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया है किन्तु सामान्य द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आपवादिक परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा गया है। बृहत्कल्पभाष्य स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं। सत्य यह है कि देश, काल, रोग आदि के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और अपवाद) अपने-अपने स्थानों में के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य बन जाता है और श्रेय व सबल होते हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। उदाहरण के रूप में सामान्यतया की पीठिका में कहा गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके ज्वर की स्थिति में भोजन निषिद्ध माना जाता है किन्तु वात, श्रम, लिए उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन हानिकारक माना असमर्थ है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। जाता है। वस्तुत: जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं। यह सब व्यक्ति उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कब आचरणीय सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति-सापेक्ष हैं और अनाचरणीय एवं अनाचरणीय आचरणीय हो जाता है। कभी उत्सर्ग इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, उन्मार्ग कोई भी नहीं है। यद्यपि यहाँ यह का पालन उचित होता है तो कभी अपवाद का। वस्तुत: उत्सर्ग और प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि किस व्यक्ति अपवाद की इस समस्या का समाधान उन परिस्थितियों में कार्य करने को उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अपवाद मार्ग पर। वाले व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही है कि साधक को सामान्य है। वैसे तो उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा स्थिति में उत्सर्ग का अवलम्बन करना चाहिए, किन्तु यदि वह किसी निश्चित कर पाना कठिन है, फिर भी जैनाचार्यों ने कुछ आपवादिक विशिष्ट परिस्थिति में फंस गया है जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन परिस्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार का से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है तो उसे अपवाद आचरण किया जाये। मार्ग का सेवन करना चाहिए फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए सामान्यतया अहिंसा को जैन साधना का प्राण कहा जा सकता कि अपवाद का आलम्बन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है। साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी वर्जित मानी गई है। है और उस परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुन: उत्सर्ग किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध के लिए तत्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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