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________________ २६६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नैतिकता केवल सिर झुका देती है और राह छोड़ देती है।" वस्तुत: कुछ पाश्चात्य विचारकों की यह मान्यता है कि बिना धार्मिक भारत में धर्म और नैतिकता दो अलग-अलग तथ्य नहीं रहे हैं। मानवीय कर्तव्यों का पालन किये भी व्यक्ति सदाचारी हो सकता है। सदाचारी चेतना के भावात्मक और सङ्कल्पात्मक पक्षों को चाहे एक दूसरे से जीवन के लिए धार्मिकता अनिवार्य तत्त्व नहीं है। आज साम्यवादी पृथक् देखा जा सकता हो, किन्तु उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया देशों में इसी धर्मविहिन नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि धर्म जा सकता। भावना, विवेक और सङ्कल्प, मानवीय चेतना के तीन का अर्थ किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था या पूजा के क्रिया-काण्डों पक्ष हैं। चूँकि मनुष्य एक समग्रता है, अत: ये तीनों पक्ष एक दूसरे तक सीमित है, तब तो यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति धार्मिक हुए के साथ मिले हुए हैं। इसीलिए मैथ्यु आरनॉल्ड को यह कहना पड़ा बिना भी नैतिक हो सकता है। किन्तु, जब धार्मिकता का अर्थ ही था कि भावनायुक्त नैतिकता ही धर्म है। पश्चिम में यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण सदाचारिता हो तो फिर क्या यह सम्भव है कि बिना सदाचारी हुए रूप से चर्चित रहा है कि धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों में कौन प्राथमिक कोई व्यक्ति धार्मिक हो जाये? जैन दर्शन हमें धर्म की जो व्याख्या है? डेकार्ट, लॉक प्रभृति अनेक विचारक नैतिक नियमों को ईश्वरीय देता है वह न तो किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था की बात कहता आदेश से प्रतिफलित मानते हैं और इस अर्थ में वे धर्म को नैतिकता है और न धर्म के कुछ क्रिया-काण्डों तक सीमित रखता है। उसने से प्राथमिक मानते हैं। जबकि कॉण्ट, मार्टिन्यू आदि नैतिकता पर धर्म की परिभाषा करते हुए चार दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैंधर्म को अधिष्ठित करते हैं। कॉण्ट के अनुसार, धर्म नैतिकता पर (१) वस्तु का स्वभाव धर्म है; आधारित है और ईश्वर का अस्तित्व नैतिकता के अस्तित्व के कारण (२) क्षमा आदि सद्गुणों का आचरण धर्म है; है। जहाँ तक भारतीय चिन्तन और विशेष रूप से जैन परम्परा का (३) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र ही धर्म है: और प्रश्न है वे धर्म और नैतिकता को एक दूसरे से पृथक् नहीं करते हैं। (४) जीवों की रक्षा करना ही धर्म है। 'आचार: प्रथमो धर्म:' के रूप में नीति की प्रतिष्ठा धर्म के साथ जुड़ी यदि इन परिभाषाओं के सन्दर्भ को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता हुई है। जैन दर्शन की भाषा में कहें तो दोनों अन्योन्याश्रित हैं। सम्यग्चारित्र है कि धार्मिक होना और नैतिक होना यह दो अलग-अलग तथ्य नहीं का आधार सम्यग्दर्शन है और सम्यग्चारित्र के अभाव में सम्यग्दर्शन हैं। 'धर्म' नैतिकता की आधारभूमि है और 'नैतिकता' धर्म की बाह्य भी नहीं होता है। सदाचरण के बिना सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा अभिव्यक्ति। धर्म नैतिकता की आत्मा है और नैतिकता धर्म का शरीर। के बिना सदाचरण सम्भव नहीं है। धर्म न नैतिकताविहीन है और अत: जैन विचारक धार्मिक और नैतिक कर्तव्यता के बीच कोई विभाजक न तो नैतिकता धर्मविहीन। ब्रैडले के शब्दों में यह असम्भव है कि रेखा नहीं खींचते हैं। उनके अनुसार आन्तरिक निष्ठापूर्वक सदाचार एक व्यक्ति धार्मिक होते हुए अनैतिक आचरण करे। ऐसी स्थिति में का पालन करना अर्थात् नैतिक दायित्वों या कर्तव्यों का पालन करना या तो वह धर्म का ढोंग कर रहा है या उसका धर्म ही मिथ्या है। ही धार्मिक होना है। कुछ लोग धर्म और नैतिकता का अन्तर इस आधार पर करते हैं कि नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है। जहाँ तक शुभ और अशुभ जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का व्यावहारिक पक्ष का संघर्ष है वहाँ तक नैतिकता का क्षेत्र है। धर्म के क्षेत्र में शुभ और जैनधर्म में हम नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता में कोई अशुभ का द्वन्द्व समाप्त हो जाता है। क्योंकि धार्मिक तभी हुआ जा विभाजक रेखा खींचना चाहें तो उसे सामाजिक कर्तव्यता और सकता है, जबकि व्यक्ति अशुभ से पूर्णतया विरत हो जाये और जब वैयक्तिक कर्तव्यता के आधार पर ही खींचा जा सकता है। हमारे अशुभ नहीं रहता तो शुभ भी नहीं रहता। जैन दार्शनिकों में आचार्य कर्तव्य और दायित्व दो प्रकार के होते हैं, एक जो दूसरों के प्रति कुन्दकुन्द ने पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) दोनों से ऊपर उठने का हैं और दूसरे जो अपने प्रति हैं। जो दूसरों अर्थात् समाज के प्रति निर्देश दिया है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि अशुभ से हमारे दायित्व हैं वे नैतिकता की परिसीमा में आते हैं- अहिंसा, निवर्तन के लिए प्रथम शुभ की साधना आवश्यक है। धर्म का क्षेत्र सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के व्रतों का जो बाह्य या व्यवहार पुण्य-पाप के अतिक्रमण का क्षेत्र है; अत: वह नैतिकता से ऊपर है, पक्ष है, उसका पालन नैतिक कर्तव्यता है, जबकि समभाव, द्रष्टाभाव फिर भी हमें यह मानना होगा कि धार्मिक होने के लिए जिन कर्तव्यों या साक्षीभाव जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'सामायिक' कहा का विधान किया गया है वे स्वरूपतः नैतिक ही हैं। जैन धर्म के गया है, की साधना धार्मिक कर्तव्यता है। जैन धर्म में आचार और पाँच व्रतों, बौद्ध धर्म के पञ्चशीलों और योग दर्शन के पञ्चयमों का पूजा-उपासना की जो दूसरी प्रक्रियाएँ हैं उनका महत्त्व या मूल्य इसी सीमाक्षेत्र नैतिकता का सीमा-क्षेत्र ही है। भारतीय परम्परा में धार्मिक बात में है कि समभाव जो हमारा सहज स्वभाव है, की उपलब्धि में, होने के लिए नैतिक होना आवश्यक है। इस प्रकार आचरण की दृष्टि किस सीमा तक सहायक है। यदि हमें जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक से नैतिक-कर्तव्यता प्राथमिक है और धार्मिक-कर्तव्यता परवर्ती है। यद्यपि कर्तव्यता को अति संक्षेप में कहना हो तो उन्हें क्रमश: 'अहिंसा' और नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार के कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव ___'समता' के रूप में कहा जा सकता है, उसमें अहिंसा सामाजिक या कर्म के नियम से होता है, अत: इन कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव नैतिक कर्तव्यता की सूचक है और समता (सामायिक) धार्मिक कर्तव्यता मूलतः धार्मिक ही है। की सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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