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________________ जैनधर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप नात मॉरल आब्लीगेशन के लिए हिन्दी भाषा में नैतिक प्रभुशक्ति, (सदाचार) की दिशा में प्रवृत्त होता है। नैतिक बाध्यता, नैतिक दायित्व या नैतिक कर्तव्यता शब्दों का प्रयोग चूँकि जैन दर्शन किसी ऐसे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं हुआ है। वस्तुत: मॉरल आब्लीगेशन् दायित्व-बोध या कर्तव्यबोध की करता है, जो “कर्म के नियम" का नियामक या अधिशास्ता है, अत: उस स्थिति का सूचक है जहाँ व्यक्ति यह अनुभव करता है कि “यह उसमें नैतिक और धार्मिक बाध्यता बाह्य-आदेश नहीं, अपितु, कर्म मुझे करना चाहिए।" पाश्चात्य नीतिवेत्ताओं के अनुसार नैतिक कर्तव्यता नियम की द्रष्टा अन्तरात्मा का ही आदेश है। उसमें बाध्यता तो है, का स्वरूप “यह करना चाहिए" इस प्रकार का है, न कि “यह करना किन्तु, यह बाध्यता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। होगा।" पाश्चात्य परम्परा में नैतिक कर्तव्यता को “चाहिए" (ought) जैन-दर्शन के अनुसार वस्तु स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को 'होगा' (Must) के रूप में देखा और यदि वस्तु स्वभाव ही धर्म है, तो धार्मिक कर्तव्यों की बाध्यता गया; क्योंकि धर्म को ईश्वरीय आदेश माना गया। जबकि भारतीय का उद्भव बाहर से ही न होकर अन्दर से होगा। जैन दर्शन में आत्मा परम्परा में विशेष रूप से जैन परम्परा में नैतिक और धार्मिक दोनों का स्वभाव "समता" बताया गया है। अत: “समभाव की साधना" ही प्रकार को कर्तव्यता की प्रकृति एक सोपाधिक कथन के रूप में की कर्तव्यता का आधार बाहरी न होकर आन्तरिक है। इसी प्रकार है, उसमें चाहिए का तत्त्व तो है, किन्तु, उसके साथ एक बाध्यता प्राणीय प्रकृति का स्वाभाविक गुण जिजीविषा है और अहिंसा की नैतिक का भाव भी है। उसमें "चाहिए" (ought) और "होगा" (Must) कर्तव्यता इसी जिजीविषा के कारण है। कहा गया है- "सभी जीना का सुन्दर समन्वय है। उसका स्वरूप इस प्रकार का है- यदि तुम चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता।" अत: प्राण-वध का निषेध किया ऐसा चाहते हो तो तुम्हें ऐसा करना होगा अर्थात् यदि तुम मुक्ति चाहते गया है। इस प्रकार जैन धर्म में चाहे समभाव की साधना की कर्तव्यता हो तो तुम्हें सम्यक् चारित्र का पालन करना होगा। उसमें बाध्यता में का प्रश्न हो या अहिंसा के व्रत के पालन का प्रश्न हो, उनकी बाध्यता भी स्वतन्त्रता निहित है। इसका कारण यह है कि भारतीय परम्परा अन्तरात्मा से ही आती है, वह किसी बाह्यतत्त्व पर आधारित नहीं है। में और विशेष रूप से जैन और बौद्ध परम्पराओं में धर्म और नीति के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची गई और न उन्हें एक दूसरे जैन-धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों की अभिन्नता से पृथक् माना गया है। पुन: जैन दर्शन के अनुसार नैतिक एवं धार्मिक सामान्यतया कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने धर्म और नीति के बीच दायित्व या कर्तव्यता की इस बाध्यता का उद्गम आत्मा द्वारा एक विभाजक रेखा खींची है और इसी आधार पर वे नैतिक और कर्म-सिद्धान्त की स्वीकृति में रहा है। यद्यपि कर्म-सिद्धान्त एक वस्तुनिष्ठ धार्मिक कर्तव्यों में भी अन्तर करते हैं। वे नैतिक कर्तव्यता को 'करना नियम है, किन्तु, उसका नियामक तत्त्व स्वयं आत्मा ही है। कर्म-नियम चाहिए' के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को “करना होगा' के रूप पर आत्मा की यह नियामकता उसके आचार की पवित्रता के साथ में लेते हैं। किन्तु, सामान्य रूप से भारतीय दार्शनिक और विशेष बढ़ती है। रूप से जैन दार्शनिक नैतिक एवं धार्मिक कर्तव्यता को अभिन्न रूप जैन परम्परा में तीन प्रकार की आत्माएँ मानी गयी हैं— बहिरात्मा, से ही ग्रहण करते हैं। वे धर्म और नीति के बीच कोई सीमा रेखा अन्तरात्मा ओर परमात्मा। इसमें बहिरात्मा इन्द्रियमय आत्मा है और नहीं खींचते हैं। भारत में धर्म शब्द का व्यवहार अधिकांश रूप में अन्तरात्मा विवेकमय आत्मा है। नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार कर्तव्य एवं सदाचार के अर्थ में ही हुआ है और इस प्रकार वह नीतिशास्त्र के दायित्वों की कर्तव्यता का उद्भव विवेकमय आत्मा से होता है, का प्रत्यय बन जाता है। भारत में नीतिशास्त्र के लिए धर्मशास्त्र शब्द जो इन्द्रियमय आत्मा को वैसा करने के लिए बाध्य करती है। जैन का ही प्रयोग हुआ है। धर्म और नीति में यह विभाजन मुख्यतया दर्शन और जे०एस०मिल इस सन्दर्भ में एकमत हैं कि सम्पूर्ण नैतिकता मानवीय चेतना के भावात्मक और सङ्कल्पात्मक पक्षों के आधार पर और धार्मिकता के दायित्व की चेतना का आधार कर्तव्य के विधान । किया गया है। पाश्चात्य विचारक यह मानते हैं कि धर्म का आधार से उत्पन्न विवेकमय अन्तरात्मा की तीव्र वेदना ही है। अन्तर केवल विश्वास या श्रद्धा है, जबकि नैतिकता का आधार सङ्कल्प है। धर्म का इतना ही है कि जहाँ मिल का आन्तरिक आदेश मात्र भावनामूलक सम्बन्ध हमारे भावनात्मक पक्ष से है, जबकि नैतिकता का सम्बन्ध है वहाँ जैन दर्शन का आन्तरिक आदेश भावना और विवेक के समन्वय हमारे सङ्कल्पात्मक पक्ष से है। सेम्युअल एलेक्जेण्डर के शब्दों में धार्मिक में उद्भूत होता है। वह कहता है कि यदि तुम्हें अमुक आदर्श प्राप्त होना' इससे अधिक कर्तव्य नहीं है, जैसे कि 'भूखा होना' कोई कर्तव्य करना है तो अमुक प्रकार से आचरण करना ही होगा। सम्यग्चारित्र है। जिस प्रकार भूख एकमात्र सांवेगिक अवस्था है, उसी प्रकार धर्म का विकास सम्यग्दर्शन (भावना) और सम्यग्ज्ञान (विवेक) के आधार भी एक सांवेगिक अवस्था है। विलियम जेम्स का कहना है कि “यदि पर होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता हमें धर्म का कोई निश्चित अर्थ लेना है तो हमें उसे भावनाओं के अतिरेक के लिए एक आबन्ध प्रस्तुत करते हैं, परिणामत: आत्मा सम्यग्चारित्र और उत्साहपूर्ण आलिङ्गन के अर्थ में लेना चाहिए। जहाँ तथाकथित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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