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________________ -दुश्चरित्र विरति -सच्चरित्र जैन दर्शन में नैतिक मूल्याङ्कन का विषय २६३ वे सदैव उसे यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित नहीं करते। अत: अभ्रान्त द्वारा उनकी एकाङ्गिता को दूरकर एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान नैतिक निर्णय के लिए कर्म के चैतसिक पक्ष या कर्ता की मानसिक करती है। अवस्थाओं पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। जैन-आचार-दर्शन जैन विचारणा में शुभत्व और अशुभत्व का निकटस्थ सम्बन्ध यह स्वीकार करता है कि नैतिक निर्णय का विषय कर्ता की मनोदशाएँ क्रमशः संवर और आस्रव से माना जा सकता है। हम कह सकते हैं, बाह्य परिणाम उसी अवस्था तक नैतिक निर्णय का विषय माने हैं कि जिससे आस्रव होकर कर्मबन्ध हो वह अशुभ है और जिससे जा सकते हैं, जब तक कि वे कर्ता की मनोदशा को यथार्थ रूप में संवर हो कर्म बंधन नहीं होता तो वह शुभ है। जैन विचारणा में आस्रव प्रतिबिम्बित करते हैं। लेकिन आचरण का मानसिक पक्ष भी इतना के पाँच कारण हैं- १. मिथ्यादृष्टि, २. कषाय, ३. अविरति, अधिक व्यापक है कि पाश्चात्य विचारकों ने उसके एक-एक पहलू को ४. प्रमाद और ५. योग। इसी प्रकार संवर के ५ कारण हैंलेकर नैतिक निर्णय के विषय की दृष्टि से उस पर गहराई से विचार १. सम्यग्दृष्टि, २. अकषाय, ३. विरति, ४. अप्रमाद और ५. अयोग। किया। इसके फलस्वरूप निम्न चार विभिन्न दृष्टिकोण सामने आते पाश्चात्य विचारणा के १. सङ्कल्प, २. प्रेरक, ३. चरित्र और ४. अभिप्राय (इरादा) अपने लाक्षणिक अर्थों में निम्न प्रकार से इनके समानार्थक (१) मिल का कहना था कि "कार्य की नैतिकता पूर्णत: अभिप्राय माने जा सकते हैं। पर अर्थात् कर्ता जो कुछ करना चाहता है, उस पर निर्भर है।" मिल मिथ्यादृष्टि १. सङ्कल्प- १. की दृष्टि में अभिप्राय (इरादा) से तात्पर्य कर्म के उस रूप से है, दृष्टि सम्यग्दष्टि जिस रूप में कर्ता उसे करना चाहता है। २३ मान लीजिए कोई व्यक्ति २. प्रेरक- २. कषाय (वासना) किसी व्यक्ति विशेष की हत्या करने के लिए उस सवारी गाड़ी को ३. चरित्र- ३. अविरति । उलटना चाहता है, जिससे वह व्यक्ति यात्रा कर रहा है। उसका प्रयास ४. प्रमाद । अप्रमाद । सफल होता है और उस व्यक्ति के साथ-साथ और भी अनेकों यात्री मारे जाते हैं। इस घटना में मिल के अनुसार उस व्यक्ति को केवल वस्तुत: पाश्चात्य विचारणा के १. सङ्कल्प, २. प्रेरक, ३. चरित्र एक व्यक्ति की हत्या में दोषी नहीं मानकर सभी की हत्या का दोषी और ४. अभिप्राय: जैन दर्शन के आस्रव एवं संवर के ५ मूल कारणों माना जायेगा; क्योंकि वह गाड़ी को ही उलटना चाहता था। के पर्यायवाची हैं और जैन दर्शन में शुभाशुभता का निर्णय उन पाँचों (२) कांट के अनुसार नैतिक निर्णय का विषय मात्र कर्ता का पर ही होता है। अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि जैन दर्शन में पाश्चात्य सङ्कल्प है। यदि उपर्युक्त घटनाक्रम के सम्बन्ध में विचार करें तो कांट विचारणा के ये चारों मतवाद अविरोधपूर्वक समन्वित हैं। के अनुसार वह व्यक्ति केवल उस व्यक्ति विशेष की हत्या का दोषी उपर्युक्त चार मतवादों के आधार पर यदि समालोच्य आचार दर्शनों होगा, न कि सभी की हत्या का, क्योंकि उसे केवल उसी व्यक्ति की की तुलना करें तो हम कह सकते हैं कि गीता का दृष्टिकोण कांट मृत्यु अभीप्सित थी। के सङ्कल्पवाद और बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अभिप्रेरकवाद . (३) इस सम्बन्ध में एक तीसरा दृष्टिकोण मार्टिन्यू का है, उनके के अधिक निकट है। क्योंकि गीता के अनुसार नैतिक निर्णय का अनुसार नैतिक निर्णय का विषय वह अभिप्रेरक है जिससे प्रेरित होकर विषय कर्ता की व्यावसायिक बुद्धि को माना गया है, जो कि कांट कर्ता ने वह कार्य किया है। उपर्युक्त दृष्टान्त के आधार पर मार्टिन्यू के सङ्कल्प के निकट ही नहीं वरन् समानार्थक भी है। इसी प्रकार बौद्ध के मत का विचार करें तो मार्टिन्यू कहेंगे कि यदि कर्ता उसकी हत्या विचारणा में शुभाशुभता के निर्णय का आधार प्राणी की वासना (तृष्णा) वैयक्तिक विद्वेष या स्वार्थ से प्रेरित होकर करना चाहता था तो वह को माना गया है। यही तृष्णा सारी जागतिक प्रवृत्तियों की प्रेरक है। दोषी होगा, लेकिन यदि वह राष्ट्रभक्ति या लोकहित से प्रेरित होकर इस प्रकार तृष्णा प्रेरक के समानार्थक है, अत: कहा जा सकता है करना चाहता था तो वह निर्दोष ही माना जायेगा। कि बौद्ध दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अधिक निकट है। जहाँ तक जैन दृष्टिकोण (४) चौथा दृष्टिकोण मैकन्जी का है, उनके अनुसार कर्म के का प्रश्न है उसे किसी सीमा तक मैकेन्जी के चरित्रवाद के निकट माना सम्बन्ध में कर्ता का चरित्र ही नैतिक निर्णय का विषय है। मान लीजिए जा सकता है, क्योंकि चरित्र शब्द में जो अर्थ-विस्तार है वह जैन कोई व्यक्ति नशे में गोली चला देता है और उससे किसी की हत्या समन्वयवादी दृष्टि के अनुकूल है, फिर भी इन विवेच्य आचार दर्शनों हो जाती है। सम्भव है कि कांट और मार्टिन्यू की धारणा में वह निर्दोष को किसी एक मतवाद के साथ बांध देना सङ्गत नहीं होगा, क्योंकि हो, लेकिन मैकन्जी की दृष्टि में तो वह अपने चरित्र की दूषितता के उनमें सभी विचारणाओं के तथ्य खोजे जा सकते हैं। गीता में काम कारण दोषी माना जायेगा। और क्रोध के अभिप्रेरक और बौद्ध विचारणा की निराकार अविद्या नीतिवेत्ताओं ने उपर्युक्त चारों मतों का परीक्षा की और उन्हें एकाङ्गी भी नैतिक निर्णय के महत्त्वपूर्ण विषय हैं। वास्तविकता यह है कि एवं दोषपूर्ण पाया है। यहाँ पर विस्तारभय से यह सब देना सम्भव भारतीय विचार दृष्टि समस्या के किसी एक पहलू को अन्य से अलग नहीं है। इस विवेचना से हमारा तात्पर्य मात्र यह दिखा देना है कि कर उस पर विचार नहीं करती वरन् सम्पूर्ण समस्या का उसके विभिन्न किस प्रकार जैन विचारणा इन चारों विरोधी मतवादों के समन्वय के पहलुओं सहित विचार करती है। यही कारण था कि जब बौद्ध विचारकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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