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________________ २६२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ निष्पाप होकर बन्धन में नहीं आता।"१७ बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा यह ठीक है कि कभी-कभी कर्म के कर्ता के हेतु और उसके परिणाम गया है- “माता, पिता, दो क्षत्रिय राजा एवं अनुचरों सहित राष्ट्र में एकरूपता नहीं रह पाती है, लेकिन यह अपवादात्मक स्थिति ही का हनन करने पर भी वीततृष्ण ज्ञानी (बाह्मण) निष्पाप ही होता है।"१८ है और अपवाद के आधार पर सामान्य नियम की प्रतिस्थापना नहीं गीता कहती है जिसमें आसक्ति और कर्तृत्व भाव नहीं है वह इस की जा सकती है। जनसाधारण की मान्यता तो यह है कि बाह्य आचरण समग्र लोक को मारकर भी न तो मारता है और न बन्धन में आता कर्ता की मनोदशाओं का ही प्रतिबिम्ब है। है।" वस्तुत: ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है।९ यद्यपि समालोच्य आचार यही कारण था कि जैन नैतिक विचारणा ने कार्य के नैतिक दर्शनों में इतनी वैचारिक एकरूपता है फिर भी जहाँ तक गीता और मूल्याङ्कन के लिए सैद्धान्तिक दृष्टि से जहाँ कर्ता के मानसिक हेतु जैनाचार दर्शन का प्रश्न है इस एकरूपता के होते हुए भी एक अन्तर का महत्त्व स्वीकार किया, वहाँ व्यावहारिक दृष्टि से कार्य के बाहाई है और वह अन्तर यह है कि गीता के अनुसार स्थित-प्रज्ञ अवस्था परिणाम की अवहेलना भी नहीं की है। श्री सिन्हा भी लिखते हैं कि में रहकर हिंसा की जा सकती है जबकि जैन विचारणा कहती है कि 'जैन-आचार दर्शन व्यक्तिनिष्ठ नैतिकता पर बल देते हुए भी कार्यों इस अवस्था में रहकर हिंसा की नहीं जा सकती है, मात्र वह हो के परिणामों पर भी समुचित रूप से विचार करता है।"२२ जैनाचारजाती है। दर्शन के अनुसार यदि कर्ता मात्र अपने उद्देश्य की शुद्धता की ओर प्रश्न होता है कि यदि जैन चिन्तन को प्रयोजन या हेतुवाद स्वीकार्य ही दृष्टि रखता है और कर्म-परिणाम के सम्बन्ध में पूर्व से ही विचार है तो फिर उसे हेतुवाद के समर्थक बौद्धदर्शन का उपहास करने या नहीं करता है तो उसका वह कर्म अयतना (अविवेक) और प्रमाद उसकी आलोचना करने का क्या अधिकार रह जाता है। लेकिन वस्तु के कारण अशुभता की कोटि में ही माना जाता है और साधक प्रायश्चित स्थिति ऐसी नहीं है। यदि जैन चिन्तकों को केवल हेतुवाद स्वीकार्य का पात्र बनता है। कर्म-परिणाम का अग्रावलोकन या पूर्व-विवेक जैन, होता तो वे बौद्ध दार्शनिकों का उपहास नहीं करते। जैन विचारणा नैतिकता में आवश्यक तथ्य है। सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का विरोध नहीं करती है, उसका विरोध वास्तविकता यह है कि नैतिक मूल्याङ्कन सामाजिक और वैयक्तिक उस एकाङ्गी हेतुवाद से है जिसमें व्यवहार की अवहेलना की जाती इन दोनों दृष्टियों से किया जा सकता है, जब हम सामाजिक दृष्टि है। एकाङ्गी हेतवाद में जैन विचारणा ने जो सबसे बड़ा खतरा देखा, से किसी कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं तो हमें तथ्य परक दृष्टि वह यह था कि एकाङ्गी हेतुवाद नैतिक मूल्याङ्कन की वस्तुनिष्ठ कसौटी से ही मूल्याङ्कन करना होता है और उस अवस्था में कार्य के परिणाम को समाप्त कर देता है, फलस्वरूप हमारे पास दूसरे के कार्यों का ही नैतिक निर्णय का विषय होंगे। लेकिन जब वैयक्तिक दृष्टि से किसी नैतिक मूल्याङ्कन या माप करने की कोई कसौटी ही नहीं रह जाती कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं, तो हमें आत्मपरक दृष्टि से मूल्याङ्कन है। यदि अभिसंधि या कर्ता का प्रयोजन ही हमारे कर्मों की शुभाशुभता करना होगा और उस अवस्था में कार्य के प्रेरक ही नैतिक निर्णय का एकमात्र निर्णायक है, तो फिर कोई भी व्यक्ति दूसरे के आचरण । के विषय होंगे। जैनाचार-दर्शन की भाषा में यदि कहें तो फल के के सम्बन्ध में कोई भी नैतिक निर्णय नहीं दे सकेगा, क्योंकि कर्ता आधार पर कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करना यह व्यवहारदृष्टि है और का प्रयोजन जो कि एक वैयक्तिक तथ्य है, दूसरे के द्वारा जाना नहीं कर्ता के हेतु के आधार पर कर्म का नैतिक मूल्याङ्कन करना यह निश्चयदृष्टि जा सकता है। दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में तो नैतिक निर्णय या परमार्थ दृष्टि है। जैनाचार-दर्शन के अनुसार दोनों ही अपने अपने उसके कार्य के बाह्य परिणाम के आधार पर ही दिया जा सकता है। क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं और आचार दर्शन के समग्र स्वरूप की दृष्टि साथ ही लोग बाह्य रूप से अनैतिक आचरण करते हुए भी यह कहकर से किसी की भी अवहेलना नहीं की जा सकती। लेकिन जहाँ तक कि उसमें हमारा प्रयोजन शुभ था, स्वयं के नैतिक या धार्मिक होने आत्मनिष्ठ नैतिकता का प्रश्न है हमें यह स्वीकार करना होगा कि नैतिक का दम्भ कर सकते हैं। स्वयं महावीर के युग में भी बाह्य रूप में निर्णय का विषय कोई आत्मपरक तथ्य ही हो सकता है, वस्तुपरक अनैतिक आचरण करते हुए, अनेक व्यक्ति स्वयं को धार्मिक या नैतिक तथ्य नहीं हो सकता। आत्मनिष्ठ नैतिकता में निर्णय का विषय कर्ता होने का दम्भ करते थे। यही कारण था कि सूत्रकृताङ्ग में महावीर की मानसिक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य घटनाएँ नहीं। पाश्चात्य विचारक को यह कहना पड़ा कि “मन से सत्य को समझते हुए भी बाहर से मिल को भी अन्त में यह स्वीकार कर लेना पड़ा कि नैतिक निर्णय दूसरी बातें करना क्या यह संयमी पुरुषों का लक्षण है?"२० हेतुवाद का विषय कर्ता द्वारा अभीप्सित फल (वाञ्छित परिणाम) है न कि का सबसे बड़ा दोष यही है कि उसमें नैतिकता का दम्भ पनपता है। बाह्य-घटित भौतिक परिणाम। लेकिन जैसे ही हम कर्ता के वाञ्छित दूसरे एकान्त हेतुवाद में मन और कर्म की एकरूपता का कोई अर्थ परिणाम की बात करते हैं, किसी आन्तरिक तथ्य की ओर सङ्केत करते ही नहीं रह जाता है। हेतुवाद यह मान लेता है कि कार्य के मानसिक हैं और नैतिक निर्णय के विषय के रूप में बाह्य घटनाओं या फल पक्ष और उसके परिणामात्मक पक्ष में एकरूपता आवश्यक नहीं है, के स्थान पर कर्म के मानसिक पक्ष को स्वीकार कर लेते हैं, वैसे दोनों स्वतन्त्र हैं, उनमें एक प्रकार का द्वैत है। जबकि सच्चे नैतिक ही हम कर्म के भौतिक पहलू से मानसिक पहलू की ओर बढ़ते हैं, जीवन का अर्थ है, मनसा वाचा कर्मणा व्यवहार की एकरूपता।२१ हमारी विवेचना का केन्द्र कर्म के स्थान पर कर्ता बन जाता है। बाह्य नैतिक जीवन की पूर्णता तो मन और कर्म के पूर्ण सामञ्जस्य में है। घटित भौतिक परिणाम कर्ता के मानस के प्रतिबिम्ब अवश्य हैं, लेकिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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