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________________ २५८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ होता है लेकिन आत्महत्या का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक है, अत: इस क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की निरपेक्षता एवं अपरिवर्तनशीलता नहीं है, वरन् कभी-कभी तो वह नैतिक ही हो जाता है, जैसे- चन्दना सम्भव है। निष्काम कर्म-योग का दर्शन इसी सिद्धान्त पर स्थित है, की माता के द्वारा की गई आत्महत्या या चेडा महाराज के द्वारा किया क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्य-रूप कर्ता के मनोभावों का गया युद्ध। यथार्थ परिचायक नहीं होता। अत: यह माना जा सकता है कि वे जैन नैतिक-विचारणा में नैतिकता को निरपेक्ष तो माना गया लेकिन मूल्य जो मनोवृत्त्यात्मक या भावनात्मक नीति से सम्बन्धित हैं केवल सङ्कल्प के क्षेत्र तक। जैन-दर्शन "मानस् कर्म' के क्षेत्र में नैतिकता अपरिवर्तनीय हैं किन्तु वे मूल्य जो आचरणात्मक या व्यवहारात्मक को विशुद्ध रूप में निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनशील स्वीकार करता है। हैं, परिवर्तनीय हैं। मानस का क्षेत्र आत्मा का अपना क्षेत्र है वहाँ वही सर्वोच्च शासक २. दूसरे, नैतिक-साध्य या नैतिक-आदर्श अपरिवर्तनशील होता है अत: वहाँ तो नैतिकता को निरपेक्ष रूप में स्वीकार किया जा सकता है किन्तु उस साध्य के साधन परिवर्तनशील होते हैं। जो सर्वोच्च शुभ है। लेकिन आचरण के क्षेत्र में चेतन तत्त्व एकमात्र शासक नहीं, वहाँ है वह अपरिवर्तनीय है, किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति के जो तो अन्य परिस्थितियाँ भी शासन करती हैं, अत: यह उस क्षेत्र में नियम या मार्ग हैं वे विविध एवं परिवर्तनीय हैं, क्योंकि एक ही साध्य नैतिकता के प्रत्यय को निरपेक्ष नहीं बनाया जा सकता। की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि सर्वोच्च शुभ को छोड़कर कुछ अन्य साध्य भी कभी नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता एवं अपरिवर्तनशीलता का साधन भी बन जाते हैं। साध्य-साधन का वर्गीकरण निरपेक्ष नहीं है, मूल्याङ्कन उनमें परिवर्तन सम्भव है। यद्यपि जब तक कोई मूल्य साध्य स्थान नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता के सम्बन्ध में हमें डीवी का पर बना रहता है, तब तक उसकी मूल्यवत्ता अपरिवर्तनीय रहती है। दृष्टिकोण अधिक सङ्गतिपूर्ण जान पड़ता है। वे यह मानते हैं कि वे किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि किसी स्थिति में जो साध्य-मूल्य परिस्थितियाँ, जिनमें नैतिक आदर्शों की सिद्धि की जाती है, सदैव है, वह कभी साधन-मूल्य नहीं बनेगा। मूल्य-विश्व के अनेक मूल्य परिवर्तनशील हैं और नैतिक नियमों, नैतिक कर्तव्यों और नैतिक ऐसे हैं जो कभी साधन-मूल्य होते हैं और कभी साध्य-मूल्य। अत: मूल्याङ्कनों के लिए इन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन उनकी मूल्यवत्ता अपने स्थान-परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती करना आवश्यक होता है, किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा है। पुन: वैयक्तिक रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के कि नैतिक सिद्धान्त इतने परिवर्तनशील हैं कि किसी सामाजिक स्थिति आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं में उनमें कोई नियामक शक्ति ही नहीं होती है। शुभ की विषयवस्तु है। अत: साधन-मूल्यों को परिवर्तनीय मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण बदल सकती है किन्तु शुभ का आकार नहीं। दूसरे शब्दों में नैतिकता हो सकता है। का शरीर परिवर्तनशील है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं। नैतिक ३. तीसरे, नैतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं। मूल्यों का विशेष स्वरूप समय-समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता है, साधारणतया सामान्य या मूल-भूत नियम ही अपरिवर्तनीय माने जा जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर और परिस्थितियाँ बदलती सकते हैं, विशेष नियम तो परिवर्तनीय होते हैं। यद्यपि हमें यह मानने रहती हैं। किन्तु मल्यों की नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर में कोई आपत्ति नहीं है कि अनेक परिस्थितियों में सामान्य नियमों रहता है। के भी अपवाद हो सकते हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर वस्तुत: नैतिक मूल्यों की वास्तविक प्रकृति में परिवर्तनशीलता भी इतना तो ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी और अपरिवर्तनशीलता के दोनों ही पक्ष उपस्थित हैं। नीति का कौन-सा नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता है। पक्ष परिवर्तनशील होता है और कौन-सा पक्ष अपरिवर्तनशील होता यहाँ एक बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक नियमों है, इसे निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है एवं साध्य-मूल्यों की अपरिवर्तनशीलता भी एकान्तिक नहीं है। वस्तुतः १. सङ्कल्प का नैतिक मूल्य अपरिवर्तनशील होता है और जैन-दर्शन में नैतिक मूल्यों या सदाचार के मानदण्डों के सन्दर्भ में आचरण का नैतिक मूल्य परिवर्तनशील होता है। हिंसा का सङ्कल्प एकान्तरूप से अपरिवर्तनशीलता और एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता कभी नैतिक नहीं होता, यद्यपि हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक हो, को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि नैतिक मूल्य या सदाचार यह आवश्यक नहीं। दूसरे शब्दों में, कर्म का जो मानसिक या बौद्धिक के मानदण्ड एकान्त रूप से अपरिवर्तनशील होंगे तो सामाजिक सन्दर्भो · पक्ष है वह निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय है, किन्तु कर्म का जो के अनुरूप नहीं रह सकेंगे। सदाचार के मानदण्ड इतने निलोंच तो व्यवहारिक एवं आचरणात्मक पक्ष है, वह सापेक्ष एवं परिवर्तनशील नहीं हैं कि वे परिवर्तनशील सामाजिक परिस्थितियों के साथ समायोजन है। दूसरे शब्दों में, नीति की आत्मा अपरिवर्तनशील है और नीति नहीं कर सकें, किन्तु वे इतने लचीले भी नहीं हैं कि हर कोई उन्हें का शरीर परिवर्तनशील है। सङ्कल्प का क्षेत्र या प्रज्ञा का क्षेत्र एक अपने अनुरूप ढाल कर उनके स्वरूप को ही विकृत कर दे। सारांश ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना ही सर्वोच्च शासक है। अन्तस् में व्यक्ति यह है कि सदाचार के मानदण्ड अन्तरङ्ग रूप से स्थायी हैं और बाह्य स्वयं अपना शासक है, वहाँ परिस्थितियों या समाज का शासन नहीं रूप से परिवर्तनशील हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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