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________________ २४६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं, तो यह भी ठीक नहीं। मेरे व्यक्तिगत स्वार्थों से सामाजिक हित किन्तु नैतिक मूल्य इस प्रकार नहीं बदलते हैं। ग्रीक नैतिक मूल्यों क्यों श्रेष्ठ एवं वरेण्य है? इस प्रश्न का हमारे पास क्या उत्तर होगा? का ईसाइयत के द्वारा तथा भारतीय वैदिक युग के मूल्यों का औपनिषदिक सामाजिक हितों की वरेण्यता का उत्तर नीति की मूल्यवत्ता को स्वीकार एवं जैन-बौद्ध संस्कृतियों के द्वारा आंशिक रूप से मूल्यांतरण अवश्य किये बिना नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार परिवर्तनशीलता के हुआ, किन्तु श्रमण-संस्कृति तथा ईसाइयत द्वारा स्वीकृत मूल्यों का नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता पर प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा इन दो हजार वर्षों में भी मूल्यांतरण नहीं हो सका है। आज जिस सकता। नैतिक मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति में ही उनकी आमूल परिवर्तन की बात कही जा रही है या जिन नये मूल्यों के परिवर्तनशीलता का कोई अर्थ हो सकता है, उनके नकाराने में सूजन की अपेक्षा की जा रही है, वह भी इन पूर्ववर्ती मूल्य-धाराओं नहीं है। के ही किन्हीं मूल्यों की प्रधान रूप से स्वीकृति या मूल्य-समन्वय यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज भी नैतिक मूल्यों से अधिक कुछ नहीं है। मूल्य-विश्व में आमूल परिवर्तन या निरपेक्ष का सृजक नहीं है। समाज किन्हीं आचरण के प्रारूपों को विहित या परिवर्तन सम्भव नहीं होता। नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में जिस प्रकार अविहित मान सकता है किन्तु सामाजिक विहितता और अविहितता का परिवर्तन होता है वह एक सापेक्ष और सीमित प्रकार का परिवर्तन नैतिक औचित्य या अनौचित्य से भिन्न है। एक कर्म अनैतिक होते है। इसमें दो प्रकार के परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। परितर्वन का एक हुए भी विहित माना जा सकता है। अथवा नैतिक होते हुए भी अविहित रूप वह होता है, जिसमें कोई नैतिक मूल्य विवेक के विकास के माना जा सकता है। कंजर जाति में चोरी, आदिम कबीलों में नरबलि ___ साथ व्यापक अर्थ ग्रहण करता जाता है तथा उसके पुराने अर्थ अनैतिक या मुस्लिम समाज में बहु पत्नी-प्रथा विहित है। राजपूतों में लड़की और नये अर्थ नैतिक माने जाने लगते हैं, जैसा कि अहिंसा और को जन्मते ही मार डालना, कभी विहित रहा था। अनेक देशों में परार्थ के प्रत्ययों के साथ हुआ है। एक समय में इन प्रत्ययों का वेश्या-वृत्ति, सम-लैंगिकता, मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक अर्थ-विस्तार परिजनों, स्वजातियों एवं स्वधर्मियों तक सीमित था। आज है, किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है? नग्नता को या शासनतन्त्र वह स्वराष्ट्र तक विकसित होता हुआ सम्पूर्ण मानव जाति एवं प्राणी की आलोचना को अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु जगत तक अपना विस्तार पा रहा है। आत्मीय परिजनों जाति-बन्धुओं इससे नग्न रहना या शासक वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना करना एवं स्वधर्मी बन्धुओं का हित-साधन करना किसी युग में नैतिक माना अनैतिक नहीं कहा जा सकेगा। मानवों के समुदाय विशेष के द्वारा जाता था, किन्तु आज हम उसे भाई-भतीजावाद, जातिवाद एवं किसी कर्म को विहित या वैधानिक मान लेने मात्र से वह नैतिक नहीं सम्प्रदायवाद कहकर अनैतिक मानते हैं। आज राष्ट्रीय हित साधन नैतिक हो जाता। गर्भपात वैधानिक हो सकता है लेकिन नैतिक कभी नहीं। माना जाता है, किन्तु आने वाले कल में यह भी अनैतिक माना नैतिक मूल्यवत्ता निष्पक्ष विवेक के प्रकाश में आलोकित होती है। जा सकता है। यही बात अहिंसा के प्रत्यय के साथ घटित हुई है। वह सामाजिक विहितता या वैधानिकता से भिन्न है। समाज किसी कर्म आदिम कबीलों में परिजनों की हिंसा ही हिंसा मानी जाती थी, आगे को विहित या अविहित बना सकता है, किन्तु उचित या अनुचित नहीं। चलकर मनुष्य की हिंसा को हिंसा माना जाने लगा; वैदिक धर्म एवं पुन: नैतिक मूल्यों की परितर्वनशीलता फैशनों की परिवर्तनशीलता यहूदी धर्म ही नहीं, ईसाई धर्म भी अहिंसा के प्रत्यय को मानव जाति के समान भी नहीं है, क्योंकि नैतिक मूल्य मात्र रुचि-सापेक्ष न होकर से अधिक अर्थ विस्तार नहीं दे पाया, किन्तु वैष्णव परम्परा में अहिंसा स्वयं रुचियों के सृजक भी हैं। अतः जिस प्रकार रुचियाँ या तद्जनित का प्रत्यय प्राणी जगत तक और जैन परम्परा में वनस्पति-जगत तक फैशन बदलते हैं, वैसे नैतिक मूल्य नहीं बदलते हैं। फैशन जितनी अपना अर्थ-विस्तार पा गया। इस प्रकार नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता तेजी से बदलते रहते हैं, उतनी तेजी से कभी भी नैतिक मूल्य नहीं का एक अर्थ मूल्यों के अर्थों का विस्तार या संकोच भी है। इसमें बदलते। यह सही है कि नैतिक मूल्यों में देश, काल एवं परिस्थितियों मूलभूत प्रत्यय की मूल्यवत्ता बनी रहती है, केवल उसके अर्थ विस्तार के आधार पर परिवर्तन होता है, किन्तु फिर भी उनमें एक स्थाई तत्त्व या संकोच ग्रहण करते जाते हैं। नरबलि, पशुबलि या विधर्मी की होता है। अहिंसा, न्याय, आत्म-त्याग, संयम आदि अनेक नैतिक हत्या, हिंसा है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, मूल्य ऐसे हैं, जिनकी मूल्यवत्ता सभी देशों एवं कालों में समान रूप किन्तु इससे अहिंसा की मूल्यवत्ता अप्रभावित है। दण्ड के सिद्धान्त से स्वीकृत रही है। यद्यपि इनमें अपवाद माने गये हैं, किन्तु अपवाद और दण्ड के नियम बदल सकते हैं, किन्तु इससे न्याय की मूल्यवत्ता की स्वीकृति इनकी मूल्यवत्ता का निषेध नहीं होकर, वैयक्तिक असमर्थता समाप्त नहीं होती। यौन नैतिकता एवं अनैतिकता के सन्दर्भ में भी अथवा परिस्थिति विशेष में उनकी सिद्धि की विवशता की ही सूचक इसी प्रकार का अर्थ-विस्तार या अर्थ-संकोच हुआ है। इसकी एक हैं। अपवाद तो अपवाद है, वह मूल नियम का निषेध नहीं है। इस अति यह रही कि पर-पुरुष का दर्शन भी पाप माना गया तो दूसरी प्रकार कुछ नैतिक मूल्य अवश्य ही ऐसे हैं जो सार्वभौम और ओर स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों को भी विहित माना गया। किन्तु इन दोनों अपरिवर्तनीय है। साथ ही नैतिक मूल्यों का परिवर्तन फैशनों के परिवर्तन अतियों के बावजूद भी पति-पत्नी सम्बंध में प्रेम, निष्ठा एवं त्याग की अपेक्षा कहीं अधिक स्थायित्व लिये हुए होता है। फैशन एक दशाब्द के तत्त्वों की अनिवार्यता सर्वमान्य रही तथा ब्रह्मचर्य की मूल्यवत्ता से दूसरे दशाब्द में ही नहीं, अपितु दिन प्रतिदिन बदलते रहते है; पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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