SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता २४५ वह है, स्वयं नीति की मूल्यवत्ता। नैतिक मूल्यों की विषय-वस्तु बदलती कि यूथचारी प्राणियों में होती है। उसकी सामाजिकता उसके बुद्धितत्व रहती है, किन्तु उनका आकार बना रहता है। मात्र इतना ही नहीं, का प्रतिफल है, वह विचार की देन है, स्वभाव की नहीं। यही कारण कुछ मूल्य ऐसे भी हैं जो अपनी मूल्यवत्ता को भी नहीं खोते, मात्र है कि वह समाज का और सामाजिक मर्यादाओं का सर्जक भी है और उनकी व्याख्या के सन्दर्भ एवं अर्थ बदलते हैं। संहारक भी, वह उन्हें स्वीकार भी करता है और उनकी अवहेलना आज स्वयं नीति की मूल्यवत्ता के निषेध की बात दो दिशाओं भी करता है; अत: वह समाज से ऊपर भी है। बेडले का कथन है से खड़ी हुई है- एक ओर भौतिकवादी और साम्यवादी दर्शनों के कि यदि मनुष्य सामाजिक नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, किन्तु द्वारा और दूसरी ओर विश्लेषणवादियों के द्वारा। यह कहा जाता है यदि वह केवल सामाजिक है तो वह पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य कि वर्तमान में साम्यवादी दर्शन नीति की मूल्यवत्ता को अस्वीकार की मनुष्यता उसके अतिसामाजिक एवं नैतिक प्राणी होने में है। अत: करता है; किन्तु इस सम्बन्ध में स्वयं लेनिन का वक्तव्य द्रष्टव्य है। मनुष्य के लिए नीति की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति असम्भव है। यदि वे कहते हैं कि प्राय: यह कहा जाता है कि हमारा अपना कोई नीतिशास्त्र हम परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को ही नहीं है; बहुधा मध्य वित्तीय वर्ग कहता है कि हम सब प्रकार के नीतिशास्त्र अस्वीकार करेंगे तो वह मानवीय संस्कृति का ही अवमूल्यन होगा। का खण्डन करते हैं किन्तु उनका यह तरीका विचारकों को भ्रष्ट करना अवमूल्यन ही नहीं, उसकी इतिश्री भी होगी। है, श्रमिकों और कृषकों की आँखों में धूल झौंकना है। हम उनका पुनश्च, नैतिक प्रत्ययों को सांवेगिक अभिव्यक्ति या रुचि-सापेक्ष खण्डन करते हैं जो ईश्वरीय आदेशों से नीतिशास्त्र को आविर्भूत मानते मानने पर भी, न तो स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को निरस्त किया जा है। हम कहते हैं यह धोखाधड़ी है, श्रमिकों और कृषकों के मष्तिष्कों सकता है और न नैतिक मूल्यों को फैशनों के समान परिवर्तनशील को पूँजीपतियों तथा भूपतियों के स्वार्थ के लिए सन्देह में डालना माना जा सकता है यदि नैतिक प्रत्यय सांवेगिक अभिव्यक्ति हैं तो है, हम कहते हैं कि हमारा नीतिशास्त्र सर्वहारा वर्ग के वर्ग-संघर्ष के प्रश्न यह है कि नैतिक आवेगों का दूसरे सामान्य आवेगों के अन्तर हितों के अधीन है: जो शोषक समाज को नष्ट करे, जो श्रमिकों को का आधार क्या है? वह कौन-सा तत्त्व है जो नैतिक आवेग को दूसरे संगठित करे और साम्यवादी समाज की स्थापना करे, वही नीति है, आवेगों से अलग करता है? यह तो सुनिश्चित सत्य है कि नैतिक शेष सब अनीति है। इस प्रकार साम्यवादी दर्शन नैतिक मूल्यों का आवेग दूसरे आवेगों से भिन्न हैं। दायित्व-बोध का आवेग, अन्याय मूल्यान्तरण तो करता है, किन्तु स्वयं नीति की मूल्यवत्ता का निषेध के प्रति आक्रोश का आवेग और क्रोध का आवेग, ये तीनों भिन्न-भिन्न नहीं करता; वह उस नीति का समर्थक है जो अन्याय एवं शोषण स्तरों के आवेग हैं और जो चेतना इनकी भिन्नता का बोध करती है, की विरोधी है और सामाजिक-समता की संस्थापक है; जो पीड़ित वही नैतिक मूल्यों की द्रष्टा भी है। नैतिक मूल्यों को स्वीकार किये और शोषित को अपना अधिकार दिलाती है और सामाजिक-न्याय बिना हम भिन्न-भिन्न प्रकार के आवेगों का अन्तर नहीं कर सकते। की स्थापना करती है। यदि इसका आधार पसन्दगी या रुचि है, तो फिर पसन्दगी या नासन्दगी वह भौतिकवादी दर्शन, जो सामाजिक एवं साहचर्य के मूल्यों के भावों की उत्पत्ति का आधार क्या है? क्यों हम चौर्य-कर्म को नापसन्द का समर्थक है, नीति की मूल्यवत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। करते हैं और क्यों ईमानदारी को पसन्द करते हैं? नैतिक भावों की यदि हम मनुष्य को एक विवेकवान्-सामाजिक प्राणी मानते हैं, तो व्याख्या मात्र पसन्दगी और नापसन्दगी के रूप में नहीं की जा सकती हमें नैतिक मूल्यों को अवश्य स्वीकार करना होगा। वस्तुतः नीति का है। मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी अथवा रुचि केवल मन की मौज अर्थ है किन्हीं विवेकपूर्ण साध्यों की प्राप्ति के लिए वैयक्तिक और या मन की तरंग (Whim) पर निर्भर नहीं है। इन्हें पूरी तरह आत्मनिष्ठ सामाजिक जीवन में आचार और व्यवहार के किन्हीं ऐसे आदर्शों एवं (Subjective) नहीं माना जा सकता, इनके पीछे एक वस्तुनिष्ठ आधार मर्यादाओं की स्वीकृति, जिनके अभाव में मानव की मानवता और भी होता है। आज हमें उन आधारों का अन्वेषण करना होगा जो हमारी मानवीय समाज का अस्तित्व ही खतरे में होगा। यदि नीति की मूल्यवत्ता पसन्दगी और नापसन्दगी को बनाते या प्रभावित करते हैं। वे कुछ का निषेध कोई दृष्टि कर सकती है, तो वह मात्र पाशविक भोगवादी आदर्श, सिद्धान्त, दृष्टियाँ या मूल्य-बोध हैं, जो हपारी पसन्दगी या दृष्टि है। यह दृष्टि मनुष्य को एक पशु से अधिक नहीं मानती है। नापसन्दगी को बनाते हैं और जिनके आधार पर हमारी रुचियाँ गठित यह सत्य है कि यदि मनुष्य मात्र पशु है तो नीति का कोई अर्थ नहीं होती हैं। मानवीय रुचियाँ और मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी है, किन्तु क्या आज मनुष्य का अवमूल्यन पशु के स्तर पर किया आकस्मिक एवं प्राकृतिक (Natural) नहीं है। जो तत्त्व इनको बनाते जा सकता है? क्या मनुष्य निरा पशु है? यदि मनुष्य निरा पशु होता हैं, उनमें नैतिक मूल्य भी हैं। पूर्णतया व्यक्ति और समाज की रचना है तो वह पूरी तरह प्राकृतिक नियमों से शासित होता है और निश्चय भी नहीं हैं, अपितु व्यक्ति के मूल्य-संस्थान के बोध से भी उत्पन्न ही उसके लिए नीति की कोई आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आज होती हैं। वस्तुत: मूल्यों की सत्ता अनुभव की पूर्ववर्ती है; मनुष्य मूल्यों का मनुष्य पूर्णत: प्राकृतिक नियमों से शासित नहीं है, वह तो प्राकृतिक का द्रष्टा है, सृजक नहीं। अत: इस धारणा के आधार पर स्वयं नीति नियमों एवं मर्यादाओं की अवहेलना करता है, अत: पशु भी नहीं की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता है। दुसरे, यदि हम है। उसकी सामाजिकता भी उसके स्वभाव से निसृत नहीं है, जैसी औचित्य एवं अनौचित्य का आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy