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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ तत्त्वमीमांसा में एक ओर यह अवधारणा रही है कि एक पुद्गल परमाणु जितनी जगह घेरता है— वह एक आकाश प्रदेश कहलाता है— दूसरे शब्दों में मान्यता यह है कि एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु ही रह सकता है किन्तु दूसरी ओर आगमों में यह भी उल्लेख है कि एक आकाश प्रदेश में असंख्यात पुद्गल परमाणु समा सकते हैं। इस विरोधाभास का सीधा समाधान हमारे पास नहीं था। लेकिन विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व में कुछ ऐसे ठोस द्रव्य है जिनका एक वर्ग इंच का वजन लगभग ८ सौ टन होता है। इससे यह भी फलित होता है कि जिन्हें हम ठोस समझते हैं, वे वस्तुतः कितने पोले हैं। अतः सूक्ष्म अवगाहन शक्ति के कारण यह संभव है कि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त परमाणु भी समाहित हो जायें। धर्म-द्रव्य एवं अधर्म-द्रव्य की जैन अवधारणा भी आज वैज्ञानिक सन्दर्भ में अपनी व्याख्याओं की अपेक्षाएँ रखती हैं जैन परम्परा में धर्मास्तिकाय को न केवल एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है, अपितु धर्मास्तिकाय के अभाव में जड़ व चेतन किसी की भी गति संभव नहीं होगी — ऐसा भी माना गया है। यद्यपि जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय को अमूर्त द्रव्य कहा गया है, किन्तु अमूर्त होते हुए भी यह विश्व का महत्त्वपूर्ण घटक है। यदि विश्व में धर्म द्रव्य एवं अधर्म जिन्हें दूसरे शब्दों में हम गति व स्थिति के नियामक तत्त्व कह सकते हैं, न होंगे तो विश्व का अस्तित्व ही सम्भव नहीं होगा। क्योंकि जहाँ अधर्म - द्रव्य विश्व की वस्तुओं की स्थिति को सम्भव बनाता है और पुद्गल पिण्डों को अनन्त आकाश में बिखरने से रोकता है, वहीं धर्म-द्रव्य उनकी गति को सम्भव बनाता है। गति एवं स्थति यही विश्व व्यवस्था का मूल आधार है। "2 यदि विश्व में गति एवं स्थिति संभव न हो, तो विश्व नहीं हो सकता है। गति के नियमन के लिये स्थिति एवं स्थिति की जड़ता को तोड़ने के लिए गति आवश्यक है। यद्यपि जड़ व चेतन में स्वयं गति करने एवं स्थित रहने की क्षमता है, किन्तु उनकी यह क्षमता कार्य के रूप में तभी परिणत होगी जब विश्व में गति और स्थिति के नियामक तत्त्व या कोई माध्यम हो जैन दर्शन के धर्म द्रव्य व अधर्मं द्रव्य को आज विज्ञान की भाषा में ईधर एवं गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि धर्म द्रव्य नाम की वस्तु है तो उसके अस्तित्व को कैसे जाना जायेगा ? वैज्ञानिकों ने जो ईश्वर की कल्पना की है उसे हम जैन धर्म की भाषा में धर्मद्रव्य कहते हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार ईथर को स्वीकार नहीं करते हैं, तो प्रश्न उठता है कि प्रकाश किरणों के यात्रा का माध्यम क्या है? यदि प्रकाश किरणें यथार्थ में किरणें हैं तो उनका परावर्तन किसी माध्यम से ही सम्भव होगा और जिसमें ये प्रकाश किरणें परावर्तित होती हैं, वह भौतिक पिण्ड नहीं, अपितु ईथर ही है। यदि मात्र आकाश हो, किन्तु ईथर न हो तो कोई गति सम्भव नहीं होगी। किसी भी प्रकार की गति के लिए कोई न कोई माध्यम आवश्यक है। जैसे मछली को तैरने के लिए Jain Education International २३४ जल। इसी गति के माध्यम को विज्ञान ईथर और जैन दर्शन धर्म द्रव्य साथ ही हम यह भी देखते है कि विश्व में केवल गति ही नहीं नहीं है, अपितु स्थिति भी है। जिस प्रकार गति का नियामक तत्व आवश्यक है, उसी प्रकार से स्थिति का भी नियामक तत्त्व आवश्यक है। विज्ञान इसे गुरुत्वाकर्षण के नाम से जानता है, जैन दर्शन उसे ही अधर्म द्रव्य कहता है व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में अधर्म द्रव्य को विश्व की स्थिति के लिए आवश्यक माना गया है, यदि अधर्म द्रव्य न हो और केवल अनन्त आकाश और गति ही हो तो समस्त पुद्गल पिण्ड अनन्त आकाश में छितर जायेंगे और विश्व व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। अधर्म द्रव्य एक नियामक शक्ति है जो एक स्थिर विश्व के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में एक ऐसी अव्यवस्था होगी कि विश्व विश्व ही न रह जायेगा। आज जो आकाशीय पिण्ड अपने-अपने यात्रा पथ में अवस्थित रहते है- जैनों के अनुसार उसका कारण अधर्मद्रव्य है, तो विज्ञान के अनुसार उसका कारण गुरुत्वाकर्षण है। इसी प्रकार आकाश की सत्ता भी स्वीकार करना आवश्यक है, क्योंकि आकाश के अभाव में अन्य द्रव्य किसमें रहेंगे, जैनों के अनुसार आकाश मात्र एक शून्यता नहीं, अपितु वास्तविकता है। क्योंकि लोक आकाश में ही अवस्थित है। अतः जैनाचायों ने आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भागों की कल्पना की। लोक जिसमें अवस्थित है वही लोकाकाश है। इसी अनन्त आकाश के एक भाग विशेष अर्थात् लोकाकाश में अवस्थित होने के कारण लोक को सीमित कहा जाता है, किन्तु उसकी यह सीमितता आकाश की अनन्तता की अपेक्षा से ही है। वैसे जैन आचार्यों ने लोक का परिमाण १४ राजू माना है। जो कि वैज्ञानिकों के प्रकाशवर्ष के समान एक प्रकार का माप विशेष है। यह लोक नीचे चौड़ा, मध्य में पतला पुनः ऊपरी भाग के मध्य में चौड़ा व अन्त में पतला है। इसके आकार की तुलना कमर पर हाथ रखे खडे हुए पुरुष के आकार से की जाती है। इस लोक के अधोभाग में सात नरकों की अवस्थिति मानी गयी है— प्रथम नरक से ऊपर और मध्यलोक से नीचे बीच में भवनपति देवों के आवास हैं इस लोक के मध्य भाग में मनुष्यों एवं तिर्यंचों का आवास है। इसे मध्य लोक या तिर्यक्-लोक कहते हैं । तिर्यक्-लोक के मध्य में मेरु पर्वत है, उसके आस-पास का समुद्र पर्यंत भू-भाग जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता है। यह गोलाकार है । उसे वलयाकार लवण समुद्र घेरे हुए हैं। लवण समुद्र को वलयाकार में घेरे हुए धातकी खण्ड है। उसको वलयाकार में घेरे हुए कालोदधि नामक समुद्र है। उसको पुनः वलयाकार में घेरे हुए पुष्कर द्वीप है। उसके आगे पुनः वलयाकार में पुष्कर समुद्र है। इनके पश्चात् अनुक्रम से एक के बाद एक वलयाकार में एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। ज्ञातव्य है कि हिन्दू परम्परा में मात्र सात द्वीपों एवं समुद्रों की कल्पना है, जिसकी जैन आगमों में आलोचना की गई है। किन्तु जहाँ तक मानव जाति का प्रश्न है, वह केवल जम्बूद्वीप, धातकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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