SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २२६ है कि वह व्यावहारिक स्तर पर नैतिकता की धारणा को स्वीकार करता व्यावहारिक स्तर पर होने वाले भेद एवं परिवर्तन भी असत् नहीं कहे है, क्योंकि यह दृष्टिकोण जैन, बौद्ध आदि लगभग सभी प्रमुख दर्शनों जा सकते। भेद भी उतना ही सत्य है, जितना अभेद और ऐसी स्थिति को भी मान्य है। हमारा अगर अद्वैतवाद से कोई विरोध है तो वह मात्र में शंकर के अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना स्पष्ट हो जाती है। यही कि अद्वैत व्यवहार को क्यों मिथ्या मानता है? अद्वैत के इस दृष्टिकोण के प्रति हमारा आक्षेप यह है कि असत् व्यवहार से सत् संदर्भ परमार्थ को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? असत् नैतिकता सत् परम १. विवेकचूडामणि, अनु० मुनिलाल, गीता प्रेस गोरखपुर, सं० तत्त्व का साक्षात्कार नहीं करा सकती। असत् व्यावहारिक नैतिकता और २००१ माया-निरूपण सत् पारमार्थिक परम तत्त्व में कोई सम्बन्ध ही नहीं बन पाता, क्योंकि २. रामानन्द तिवारी, शंकराचार्य का आचार दर्शन, हिन्दी साहित्य उनमें एक असत् और दूसरा सत् है। लेकिन जब हम व्यवहार और सम्मेलन, प्रयाग, सं० २००६, पृ० १६-१७ परमार्थ को सत् सम्बन्धी दो दृष्टियाँ मानते हैं तो वे परस्पर सम्बन्धित ३. आप्तमीमांसा, २५ । हो जाती हैं लेकिन जब उनमें से परमार्थ को सत्ता और व्यवहार को ४. Studies in Jain Philosophy, P.V. Research Instiदृष्टि मानते हैं तो वे परस्पर विरोधी एवं असम्बन्धित हो जाती हैं। सत् tute, Varanasi, 1951, P. 178. से ही सत् पाया जा सकता है असत् से सत् नहीं पाया जा सकता। ५. शंकराचार्य का आचार-दर्शन, पृ० ६६-६७ लेकिन यदि विचारपूर्वक देखें तो अद्वैतवाद भी व्यवहार को असत् ६. डा० राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, राजपाल एण्ड सन्स, देहली कहने का साहस नहीं कर सकता क्योंकि उसकी व्यावहारिक सत्ता की १९६६, खण्ड १, पृष्ठ ३११ धारणा माया पर अवलम्बित है और यदि माया असत् नहीं है तो महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भारतीय वाङ्मय के विश्रुत किन्तु वह एक आलोचक दृष्टि से ही लिखा गया है, अत: उनके विद्वान् थे। हिन्दी साहित्य की विविध-विधाओं में भारतीय वाङ्मय को व्यक्तित्व को सम्यक् रूप में प्रस्तुत नहीं करता है। महावीर के सम्बन्ध उनका अवदान अविस्मरणीय है। दर्शन के क्षेत्र में राहुलजी ने जितना में दीघनिकाय के आधार पर वे लिखते हैंअधिक पाश्चात्य दर्शनों, विशेष रूप से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एवं 'महावीर की मुख्य शिक्षा को बौद्धत्रिपिटक में इस प्रकार बौद्धदर्शन के सम्बन्ध में लिखा, उसकी अपेक्षा जैनदर्शन के क्षेत्र में उद्धृत किया गया है- निर्ग्रन्थ (जैन साधु) चार संवरों (संयमों) से उनका लेखन बहुत ही अल्प है। उनके ग्रन्थ 'दर्शन-दिग्दर्शन' में संवृत्त रहता है। १. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है, वर्धमान महावीर और अनेकान्तवादी जैन दर्शन, के सम्बन्ध में जो कुछ (जिससे जल के जीव न मारे जावें), २. सभी पापों का वारण करता लिखा है, उसे अथवा बौद्धग्रन्थों में आने वाली जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी है, ३. सभी पापों के वारण करने से वह पाप रहित (धूतपाप) होता समीक्षाओं के हिन्दी अनुवाद को छोड़कर उन्होंने जैनदर्शन के क्षेत्र में है, ४. सभी पापों के वारण में लगा रहता है।... चूँकि निर्ग्रन्थ इन चार कुछ लिखा हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं। अत: यहाँ जैनदर्शन के क्षेत्र में प्रकार के संवरों से संवृत्त रहता है इसलिए वह-गतात्मा (अनिच्छुक), उनके विचारों की समीक्षा इन्हीं ग्रन्थांशों के आधार पर की गई है। यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है।' (दर्शन-दिग्दर्शन, प्र. उन्होंने अपने ग्रन्थ 'दर्शन-दिग्दर्शन' में जैन परम्परा का ४९५) उल्लेख विशेषरूप से दो स्थलों पर किया है- एक तो बुद्ध के इस विवरण में महावीर की शिक्षाओं को चातुर्याम संवर समकालीन छः तीर्थंकरों के सन्दर्भ में और दूसरा जैनदर्शन के स्वतन्त्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने जिस चातुर्याम संवर का प्रतिपादन के क्षेत्र में। बौद्धग्रन्थों में वर्णित छ: तीर्थंकरों में वर्द्धमान उल्लेख किया है, वस्तुत: वह चातुर्याम संवर का मार्ग महावीर का महावीर का उल्लेख उन्होंने सर्वज्ञतावादी के रूप में किया है, किन्तु नहीं, पार्श्व का है। परवर्तीकाल में जब पार्श्व की निर्ग्रन्थ परम्परा उन्होंने यह समग्र विवरण बौद्धग्रन्थों के आधार पर ही प्रस्तुत किया है। महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गयी, तो त्रिपिटक संकलनकर्ताओं बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों और विशेष रूप से वर्द्धमान महावीर ने दोनों धाराओं को एक मानकर पार्श्व के विचारों को भी महावीर के सन्दर्भ में यदि वे बौद्धेतर स्रोतों को भी आधार बनाते तो उनके के नाम से ही प्रस्तुत किया। त्रिपिटक के संकलन कर्ताओं की इस साथ अधिक न्याय कर सकते थे। क्योंकि बौद्धग्रन्थों में महावीर का जो भ्रान्ति का अनुसरण राहुलजी ने भी किया और अपनी ओर से चित्रण निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (नातपुत्त) के रूप में है उसमें सत्यांश तो है, टिप्पणी के रूप में भी इस भूल के परिमार्जन का कोई प्रयत्न नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy