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________________ २२५ के दर्शन में आचार-दर्शन की सम्भावना को सिद्ध करने के प्रयास की अपेक्षा विशेष से ही है, एक अपेक्षा के द्वारा दूसरी अपेक्षाओं का में उसे जिस स्तर पर लाकर खड़ा किया है, वहाँ शंकर सत् की समग्र निषेध तो कभी भी नहीं हो सकता। किसी तीसरी अपेक्षा से दोनों कठोर अद्वैतवादी धारणा से दूर हटकर अभेदाश्रितभेद की धारणा परं ही यथार्थ हो सकते हैं। यदि हम कहें कि राम दशरथ की अपेक्षा से पुत्र आ जाते हैं और शंकर एवं रामानुज में कोई विशेष दूरी नहीं रह है और पिता नहीं है, तो इसमें उनके पितृत्व का समग्र निषेध नहीं होता जाती है। स्वयं डॉ० रामानन्द भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि है। लव और कुश की अपेक्षा से वे पिता हो सकते हैं। अद्वैतवादी रामानुज और शंकर में वह दूरी नहीं है जैसी परवर्ती शंकरानुयायियों गलती यह करते हैं कि वे परमार्थ की अपेक्षा से व्यवहार का पूर्ण ने बतायी है। अस्तु। निषेध मान लेते हैं। जिस प्रकार दशरथ की अपेक्षा से राम का पितृत्व ___अद्वैतवाद में आचार-दर्शन की सम्भावना तो तब समाप्त हो मिथ्या है और पुत्रत्व सत्य है और लव-कुश की अपेक्षा से राम का जाती है जब हर स्तर पर ही अभेद माना जाये। लेकिन अद्वैत के पुत्रत्व मिथ्या है और पितृत्व सत्य है लेकिन स्वयं राम की अपेक्षा से प्रस्तोता आचार्य शंकर भी हर स्तर पर अभेद की धारणा को स्वीकार न पितृत्व मिथ्या है न पुत्रत्व मिथ्या है वरन् दोनों ही यथार्थ हैं, उसी नहीं करते। वे कहते हैं कि भेद असत् है लेकिन भेद या अनेकता के प्रकार पारमार्थिक दृष्टि से भेद मिथ्या है और अभेद सत्य है, व्यावहारिक असत् होने का अर्थ यह नहीं है कि वह प्रतीति का विषय नहीं है यद्यपि दृष्टि से भेद सत्य और अभेद मिथ्या है लेकिन परमतत्त्व की अपेक्षा से यह समस्या है कि असत् अनेकता कैसे प्रतीति का विषय बन जाती तो न अभेद मिथ्या है और न भेद मिथ्या है अपितु दोनों ही सत्य हैं। है? लेकिन यहाँ इस चर्चा की गहराई में जाना इष्ट नहीं है। अद्वैतवाद कठोर अद्वैतवादी विचारक यह भूल जाते हैं कि भेद और अभेद तो यह मान कर चलता है कि प्रतीति की दृष्टि से न केवल वस्तुगत परमतत्त्व के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, वे स्व अपेक्षा से सत्य और पर अनेकता है वरन् व्यक्तिगत अनेकता भी है, और प्रतीति के क्षेत्र में इस अपेक्षा से मिथ्या होते हुए भी परम तत्त्व की अपेक्षा से दोनों ही सत्य भेद तथा अनेकता के कारण बन्धन और मुक्ति एवं नैतिकता और धर्म हो सकती हैं। अद्वैतवादी दर्शन का मानदण्ड लेकर नापने वाले मनीषी की सम्भावनाएँ भी हैं। इस प्रकार अद्वैतवादी भी केवल पारमार्थिक स्तर डा० राधाकृष्णन् ने अनेकान्तवादी यथार्थवाद को बीच मार्ग में पड़ाव पर ही अभेद को मानते हैं। व्यावहारिक स्तर पर तो उन्हें भी भेद जैसा कहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि अद्वैतवादी दर्शन केवल स्वीकार है। व्यावहारिक स्तर पर जब भेद स्वीकार कर लिया जाता है पारमार्थिक या तत्त्व दृष्टि से भेद का निषेध कर स्वयं बीच मार्ग में तो आचार-दर्शन की सम्भावना अवगम्य हो जाती है। मेरी अपनी दृष्टि पड़ाव डाल देता है। वह आगे बढ़कर यह क्यों नहीं कहता है कि में शंकर जब तक पारमार्थिक स्तर पर अभेद और अद्वयता और व्यावहारिक दृष्टि से अभेद भी मिथ्या है। इससे भी आगे बढ़कर वह व्यावहारिक स्तर पर भेद और अनेकता को स्वीकार करते हैं तब तक यह क्यों नहीं स्वीकार करता है कि परम तत्त्व की अपेक्षा से भेद और वे कोई गलती नहीं करते। स्वयं जैन एवं बौद्ध विचारक भी पारमार्थिक अभेद दोनों ही सत्य हैं। पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टियाँ सत् के स्तर पर अभेद एवं व्यावहारिक स्तर पर भेद की संकल्पना को स्वीकार सम्बन्ध में क्रमश: अभेदगामी और भेदगामी दृष्टियाँ हैं, उनमें से कोई करते हैं। भी असत्य नहीं है, दोनों ही अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्य हैं। अद्वैतवादी दर्शन की मूल भूत कमजोरी : व्यावहारिक भेद भी उतना ही यथार्थ है जितना पारमार्थिक अभेद। दोनों इस आधार पर अद्वैतवाद की आलोचना करना उचित नहीं में कोई तुलना नहीं हो सकती है, दो भिन्न-भिन्न स्थितियों से खींचे गये होगा कि अद्वैतवाद में नैतिक दर्शन की अवगम्यता व्यावहारिक स्तर वस्तु के दो चित्रों में कोई भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता है। सत् का तक होती है। स्वयं जैन एवं बौद्ध विचारणाओं में भी नैतिकता की भेदवादी दृष्टिकोण भी उतना ही यथार्थ है जितना सत् का अभेदवादी अवधारणा व्यावहारिक स्तर पर ही सम्भव है। दृष्टिकोण। क्योंकि दोनों सत्ता के ही दो पक्ष हैं। यदि अद्वैतवाद पारमार्थिक दृष्टि से अभेद को ही सत्य और व्यवहार के भेद पारमार्थिक और व्यावहारिक ऐसी दो सत्ताएँ खड़ी करता है तो स्वयं को मिथ्या कहकर भी शंकर कोई गलती नहीं करते हैं। परमार्थ की दृष्टि अपने सिद्धान्त से पीछे हट जाता है यदि परमार्थ और व्यवहार दोनों से व्यवहार मिथ्या है यह ठीक है, लेकिन उससे आगे बढ़कर हमें यह को ही वास्तविक मानता है तो उसका अद्वैत खण्डित हो जाता है। और भी मानना पड़ेगा कि व्यवहार की अपेक्षा से अभेद भी मिथ्या होगा, यदि व्यवहार को मिथ्या कहता है तो आनुभविक जगत् की यथार्थता क्योंकि वस्तु-तत्त्व स्वापेक्षा से सत्य होता है किन्तु परापेक्षा से मिथ्या और आचार-दर्शन की सम्भावना निरस्त हो जाती है। कुमारिल ने भी होता है। जिस प्रकार परमार्थ की अपेक्षा से अभेद सत्य है और भेद शंकर के दर्शन में यही दोष दिखाया है। वस्तुत: परमार्थ और व्यवहार मिथ्या है उसी प्रकार व्यवहार की अपेक्षा से भेद सत्य और अभेद सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, दोनों सत्ता के दो पहलू हैं और दोनों मिथ्या होंगे। शंकर आधी दूर आकर रुक जाते हैं। वे आगे बढ़कर ही यथार्थ हैं। व्यवहार की अपेक्षा से अभेद को मिथ्या कहने का साहस क्यों नहीं हमारा अद्वैतवाद से न तो इसलिए कोई विवाद है कि वह करते? जब परमार्थ की अपेक्षा व्यवहार को असत् कहा जाता है तो हमें पारमार्थिक दृष्टि से अभेद को मानता है, क्योंकि तत्त्व या द्रव्य दृष्टि से यह ध्यान में रखना होगा कि यहाँ उसके असत् का प्रतिपादन परमार्थ अभेद को तो सभी ने स्वीकार किया है। और न इसलिए कोई विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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