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________________ जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण २०९ और अबन्धक कर्म क्या है, अत्यन्त कठिन है। गीता कहती है कि कर्म करने का प्रयास करते हैं कि 'कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं (बन्धक कर्म) क्या है और अकर्म (अबन्धक कर्म) क्या है, इसके अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव' ऐसा नहीं मानना चाहिए। विषय में विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं।४७ कर्म के यथार्थ स्वरूप के वे अत्यन्त सीमित शब्दों में कहते हैं कि प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म ज्ञान का विषय अत्यन्त गहन है। यह कर्म-समीक्षा का विषय अत्यन्त है।५१ ऐसा कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रयता गहन और दुष्कर क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर हमें जैनागम सूत्रकृतांग में नहीं, वह तो सतत् जागरूकता है। अप्रमत्त अवस्था या आत्म-जागृति भी मिलता है। उसमें कहा गया है कि कर्म, क्रिया या आचरण समान की दशा में क्रियाशीलता भी अकर्म हो जाती है, जबकि प्रमत्त दशा या होने पर भी बन्धन की दृष्टि से वे भिन्न-भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं। आत्म-जागृति के अभाव में निष्क्रियता भी कर्म (बन्धन) बन जाती है। मात्र आचरण, कर्म या पुरुषार्थ को देखकर यह निर्णय देना सम्भव नहीं वस्तुत: किसी क्रिया का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं, कि वह नैतिक दृष्टि से किस प्रकार का है। ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय-भावों एवं राग-द्वेष की स्थिति पर समान वीरता को दिखाते हुए (अर्थात् समानरूप से कर्म करते हुए) भी निर्भर है। जैन दर्शन के अनुसार, राग-द्वेष एवं कषाय (जो कि आत्मा अधूरे ज्ञानी और सर्वथा अज्ञानी का, चाहे जितना पराक्रम (पुरुषार्थ) की प्रमत्त दशा हैं) ही किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं, जबकि कषाय हो, पर वह अशुद्ध है और कर्म-बन्ध का कारण है, परन्तु ज्ञान एवं एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म अकर्म बन जाता है। बोध सहित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध है और उसका कुछ फल नहीं महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि- जो आस्रव या बन्धन कारक भोगना पड़ता। योग्य रीति से किया हुआ तप भी यदि कीर्ति की इच्छा क्रियाएँ हैं, वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति का से किया गया हो तो शुद्ध नहीं होता।४८ बन्धन की दृष्टि से कर्म का साधन बन जाती है।५२ इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म विचार उसके बाह्य-स्वरूप के आधार पर ही नहीं किया जा सकता, अपने बाह्य-स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर उसमें कर्ता का प्रयोजन, कर्ता का विवेक एवं देशकालगत परिस्थितियाँ होते हैं। भी महत्त्वपूर्ण हैं और कर्मों का ऐसा सर्वांगपूर्ण विचार करने में विद्वत् वर्ग भी कठिनाई में पड़ जाता है। कर्म में कर्ता के प्रयोजन को, जो कि ईर्यापथिक कर्म और साम्परायिक कर्म५३ एक आन्तरिक तथ्य है, जान पाना सहज नहीं होता। जैन दर्शन में बन्धन की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में लेकिन, कर्ता के लिए जो कि अपनी मनोदशा का ज्ञाता भी बाँटा गया है--(१) ईर्यापथिक क्रियाएँ (अकर्म) और (२) साम्प्ररायिक है, यह आवश्यक है कि कर्म और अकर्म का यथार्थ स्वरूप समझे, क्रियाएँ (कर्म)। ईर्यापथिक क्रियाएँ निष्काम वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति क्योंकि उसके अभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक नहीं है और साम्परायिक क्रियाएँ कि- मैं तुझे कर्म के उस रहस्य को बताऊँगा जिसे जानकर तू मुक्त आसक्त व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक हैं। संक्षेप में वे हो जायेगा।४९ नैतिक विकास के लिए बन्धक और अबन्धक कर्म के समस्त क्रियाएँ जो आस्रव एवं बन्ध की कारण हैं, कर्म हैं और वे यथार्थ स्वरूप को जानना आवश्यक है। बन्धन की दृष्टि से कर्म के समस्त क्रियाएँ जो संवर एवं निर्जरा की हेतु हैं, अकर्म हैं। जैन दृष्टि यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का में अकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है--राग-द्वेष एवं मोह रहित दृष्टिकोण निम्नानुसार है होकर मात्र कर्त्तव्य अथवा शरीर-निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म। कर्म का अर्थ है--राग-द्वेष और मोह से युक्त कर्म, वह बन्धन जैन दर्शन में कर्म-अकर्म विचार में डालता है, इसलिए वह कर्म है। जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो मोह से रहित होकर कर्तव्य या शरीरनिर्वाह के लिए किया जाता है, दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। (१) उसकी बन्धनात्मक शक्ति वह बन्धन का कारण नहीं है, अत: अकर्म है। जिन्हें जैन दर्शन में के आधार पर और (२) उसकी शुभाशुभता के आधार पर। बन्धनात्मक ईर्यापथिक क्रियाएँ या अकर्म कहा गया है, उन्हें बौद्ध परम्परा शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं कि कुछ कर्म बन्धन अनुपचित, अव्यक्त या अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें में डालते हैं, और कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं। बन्धक कर्मों को जैन-परम्परा साम्परायिक क्रियाएँ या कर्म कहती है, उन्हें बौद्ध कर्म और अबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है। जैन दर्शन में कर्म परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती हैं। इस सम्बन्ध में और अकर्म के यथार्थ स्वरूप का विवेचन हमें सर्वप्रथम आचारांग एवं विस्तार से विचार करना आवश्यक है। सूत्रकृतांग में मिलता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कर्म और अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं।५° इसका तात्पर्य यह है कि कुछ बन्धन के कारणों में मिथ्यात्व और कषाय की प्रमुखता का प्रश्न५४ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है, जबकि जैन कर्मसिद्धान्त के उद्भव व विकास की चर्चा करते हुए दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है। इस हमनें बन्धन के पाँच सामान्य कारणों का उल्लेख किया था। वैसे सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट जैन ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न कर्मों के बन्धन के भिन्न-भिन्न कारणों की Jain Education International For 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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