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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २०८ सामाजिक जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार पुण्य-पाप दोनों को बन्धन का कारण कहकर दोनों के बन्धकत्व का यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का निर्णय अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं। समयसार में वे कहते है कि- अशुभ अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गये व्यवहार अथवा दृष्टिकोण कर्म पाप (कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, के सन्दर्भ में होता है, लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौन-सा फिर भी पुण्य कर्म एवं पाप कर्म दोनों ही संसार (बन्धन) का कारण व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौन-सा अशुभ होगा इसका है जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह-बेड़ी के समान ही व्यक्ति को निर्णय किस आधार पर किया जाये? भारतीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी जो कसौटी प्रदान की है, वह यही है कि जैसा व्यवहार हम अपने लिए बन्धन के कारण हैं।४४ फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी प्रतिकूल समझते हैं वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना और जैसा कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं। आचार्य व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना यही अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोमें शुभाचरण है। इसके विपरीत जो व्यवहार हमें अपने लिए प्रतिकूल में भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन लगता है वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा व्यवहार हमें हैं।४५ यही बात पं. जयचन्द्रजी भी कहते हैंअपने लिए अनुकूल लगता है वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करना पुण्य पाप दोऊ करम, बन्यरूप दुई मानि। अशुभाचरण है। भारतीय ऋषियों का यही संदेश है। संक्षेप में सभी शुद्ध आत्मा जिन लयो, नभु चरन हित जानि।।४६ प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है। जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी जैन दर्शन के अनुसार जिस व्यक्ति में संसार के सभी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है, वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है। लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने में ठीक उसी प्रकार सहायक है जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है, वह पाप-कर्म में सहायक है फिर भी उसे अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या का बन्ध नहीं करता।३९ सूत्रकृतांग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) शुद्धात्म-दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है, उसे भी छोड़ना के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए।४० होता है। जिस प्रकार साबुन मल को दूर करता है और मैल छूटने पर स्वयं अलग हो जाता है, वैसे ही पुण्य भी पापरूप मल को अलग शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर करने में सहायक होता है। अत: व्यक्ति जब अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर जैन दृष्टिकोण- जैन विचारणा में शुभ-अशुभ अथवा मंगल- उठ जाता है, तब उसका शुभ कर्म भी शुद्ध बन जाता है। द्वेष पर पूर्ण अमंगल की वास्तविकता स्वीकार की गयी है। उत्तराध्ययनसूत्र के विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है, अत: राग-द्वेष के अभाव में अनुसार तत्त्व नौ हैं जिनमे पुण्य और पाप स्वतन्त्र तत्त्व हैं। १ तत्त्वार्थसूत्रकार उससे जो कर्म निस्सृत होते हैं, वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते हैं। जैनाचारदर्शन उमास्वाति ने जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये में राग-द्वेष से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण सात तत्त्व गिनाये हैं, इनमें पुण्य और पाप को नहीं गिनाया है।४२ का कारण माना गया है और आसक्तिपूर्वक किया गया शुभ कार्य भी लेकिन यह विवाद महत्त्वपूर्ण नहीं क्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतंत्र तत्त्व बन्धन का कारण माना गया है। यहाँ पर गीता का अनासक्त कर्म-योग नहीं मानती है वह भी उनको आस्रव तत्त्व के अन्तर्गत मान लेती है। जैन दर्शन के अत्यन्त समीप आ जाता है। जैन दर्शन के अनुसार यद्यपि पुण्य और पाप मात्र आस्रव नहीं है, वरन् उनका बन्ध भी होता आत्मा का लक्ष्य अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर और शुभकर्म से है और विपाक भी होता है। अत: आस्रव के शुभास्रव और अशुभास्रव शुद्धकर्म (वीतराग दशा) की प्राप्ति है। आत्म का शुद्धोपयोग ही जैन ये दो विभाग करने से काम नहीं बनता, बल्कि बन्ध और विपाक में भी धर्म का अन्तिम साध्य है। दो-दो भेद करने होंगे। इस कठिनाई से बचने के लिए ही पाप एवं पुण्य को स्वतंत्र तत्त्वों के रूप में गिन लिया गया है। शुद्ध कर्म (अकर्म) फिर भी जैन विचारणा निर्वाण-मार्ग के साधक के लिए शुद्ध कर्म वह जीवन-व्यवहार है, जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से दोनों को हेय और त्याज्य मानती हैं, क्योंकि दोनों ही बन्धन के रहित मात्र कर्तव्यबुद्धि से सम्पादित होती हैं तथा जो आत्मा को बन्धन कारण हैं। वस्तुत: नैतिक जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्य-पाप में नहीं डालतीं। अबन्धक कर्म ही शुद्धकर्म हैं। जैन आचारदर्शन इस से ऊपर उठ जाने में है। शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब प्रश्न पर गहराई से विचार करता हैं कि आचरण (क्रिया) एवं बन्धन में तक बना रहता है, नैतिक पूर्णता नहीं आती। अशुभ पर पूर्ण विजय क्या सम्बन्ध है? क्या 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की उक्ति सर्वाशत: सत्य के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में है? एक तो कर्म या क्रिया के सभी रूप बन्धन की दृष्टि से समान नहीं स्थित हो जाता है। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहता है कि पूर्वकृत हैं फिर यह भी सम्भव है कि आचरण एवं क्रिया के होते हुए भी कोई पुण्य और पाप संसार संतति का मूल है४३। आचार्य कुन्दकुन्द बन्धन नहीं हो। लेकिन यह निर्णय कर पाना कि बन्धक कर्म क्या है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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