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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २०६ माया (कपट, छल, षड्यन्त्र और कूटनीति), ९. लोभ (संचय या को पुण्योपार्जन का कारण कहा गया है।३३ स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के संग्रह वृत्ति), १०. राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या पुण्य निरूपित है३४आदि), ११. क्लेश (संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि), १२. १. अन्नपुण्य भोजनादि देकर क्षुधात की क्षुधा-निवृत्ति करना। अभ्याख्यान (दोषारोपण), १३. पिशुनता (चुगली), १४. परपरिवाद २. पानपुण्य- तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना। (परनिन्दा), १५. रति-अरति (हर्ष और शोक), १६. माया-मृषा (कपट ३. लयनपुण्य- निवास के लिए स्थान देना जैसे धर्मशालाएँ सहित असत्य भाषण), १७. मिथ्यादर्शनशल्य (अयथार्थ जीवनदृष्टि)।२७ आदि बनवाना। ४. शयनपुण्य- शय्या, बिछौना आदि देना। पुण्य (कुशल कर्म) ५. वस्त्रपुण्य- वस्त्र का दान देना। पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर ६. मनपुण्य- मन से शुभ विचार करना। जगत् के मंगल की समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य परिवेश में सन्तुलन शुभकामना करना। बनाना यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्त्वार्थसूत्रकार ७. वचनपुण्य- प्रशस्त एवं संतोष देनेवाली वाणी का प्रयोग कहते हैं- शुभास्रव पुण्य है२८, लकिन पुण्य मात्र आस्रव नहीं है, करना। वह बन्ध ओर विपाक भी है। वह हेय ही नहीं है, उपादेय भी है। अतः ८ कायपुण्य- रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना। अनेक आचार्यों ने उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। आचार्य ९. नमस्कारपुण्य- गुरूजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए हेमचन्द्र पुण्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि-पुण्य (अशुभ) कर्मों उनका अभिवादन करना। का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है।२९ इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभ पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है। पुण्य शुभाशुभता या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते के निर्वाण की उपलब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या आचार्य हैं- (१) कर्म का बाह्य-स्वरूप अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव और अभयदेव की स्थानांगसूत्र की टीका में मिलती है। आचार्य अभयदेव (२) कर्ता का अभिप्राय। इन दोनों में कौन-सा आधार यथार्थ है, यह कहते हैं कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध-दर्शन में कर्ता के अभिप्राय की ओर ले जाता है।३० आचार्य की दृष्टि में पुण्य आध्यात्मिक साधना को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया। गीता स्पष्ट में सहायक तत्त्व है। मुनि सुशील कुमार लिखते हैं कि- "पुण्य रूप से कहती है कि-जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बृद्धि मोक्षार्थियों की नौका के लिए अनुकूल वायु है, जो नौका को भवसागर निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डालें तो भी यह समझना से शीघ्र पार करा देती है।३१ जैन कवि बनारसीदासजी समयसार चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन नाटक में कहते हैं कि- “जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे को प्राप्त होता है।३५ धम्मपद में बुद्ध-वचन भी ऐसा ही है (नैष्कर्म्यस्थिति आत्मा आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे इस संसार को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित में भौतिक समृद्धि और सुख मिलता है, वही पुण्य है।३२ राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है।३६ बौद्ध दर्शन में कर्ता के जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार, पुण्य-कर्म वे शुभ पुद्गल-परमाणु अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण हैं, जो शुभवृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित सूत्रकृतांगसूत्र के आद्रक सम्वाद में भी मिलता है।३७ जहाँ तक जैन हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, को ही कर्म की शुभाशुभता का आधार माना गया है। मुनि सुशीलकुमारजी मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं। जैनधर्म पृ.१६० पर लिखते हैं, “शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं जो शुभ आधार मनोवृत्तियां ही हैं। एक डॉक्टर किसी को पीड़ा पहुंचाने के लिए पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं। साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल- उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाये परन्तु परमाणु जो उन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और डॉक्टर तो पाप-कर्म के बन्ध का ही भागी होगा। इसके विपरीत वही अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के डॉक्टर करुणामय अपनी शुभ-भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता अवसर उपस्थित करते हैं, पुण्य कहे जाते हैं। शुभ मनोवृत्तियाँ भावपुण्य है।" पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं, पुण्य-बन्ध की कसौटी हैं और शुभ-पुद्गल-परमाणु द्रव्यपुण्य हैं। केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है (दर्शन और चिन्तन खण्ड २.पृ.२२६)। पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में भी कर्मों की भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-प्रवृत्तियों शुभाशुभता के निर्णय का आधार मनोवृत्तियां ही हैं, फिर भी उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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