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________________ जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण २०३ आत्मा को कैसे प्रभावित कर सकता है? सांख्य दर्शन पुरुष और शरीर से युक्त होता है, तभी तक कर्मवर्गणा के पुद्गल उसे प्रभावित प्रकृति के द्वैत को स्वीकार करके भी इनके पारस्परिक सम्बन्ध को नहीं कर सकते हैं। आत्मा में पूर्व से उपस्थित कर्मवर्गणा के पुद्गल ही समझा पाया, क्योंकि उसने पुरुष को कूटस्थ नित्य मान लिया था, बाह्य-जगत् के कर्मवर्गणाओं को आकर्षित कर सकते हैं। मुक्त अवस्था किन्तु जैन दर्शन ने अपने वस्तुवादी और परिणामवादी विचारों के में आत्मा अशरीरी होता है अत: उसे कर्मवर्गणा के पुद्गल प्रभावित आधार पर इनकी सफल व्याख्या की है। वह बताता है कि जिस प्रकार करने में समर्थ नहीं होते हैं। जड़ मादक पदार्थ चेतना को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार जड़ कर्मवर्गणाओं का प्रभाव चेतन आत्मा पर पड़ता है, इसे स्वीकार किया कर्म एवं उनके विपाक की परम्परा जा सकता है। संसार का अर्थ है-- जड़ और चेतन का वास्तविक कर्म एवं उनके विपाक की परम्परा से ही यह संसार-चक्र सम्बन्ध। इस सम्बन्ध की वास्तविकता को स्वीकार किये बिना जगत् प्रवर्तित होता है। दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि कर्म और की व्याख्या सम्भव नहीं है। आत्मा का सम्बन्ध कब से हुआ। यदि हम यह सम्बन्ध सादि अर्थात् काल विशेष में हुआ, ऐसा मानते हैं, तो यह मानना होगा कि उसके मूर्तकर्म का अमूर्त आत्मा पर प्रभाव पहले आत्मा मुक्त था और यदि मुक्त आत्मा को बन्धन में आने की यह भी सत्य है कि कर्म मूर्त है और वे हमारी चेतना को सम्भावना हो तो फिर मुक्ति का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है। यदि प्रभावित करते हैं। जैसे मूर्त भौतिक विषयों की चेतना व्यक्ति से सम्बद्ध यह माना जाय कि आत्मा अनादिकाल से बन्धन में है, तो फिर यह होने पर सुख-दु:ख आदि का अनुभव या वेदना होती है, वैसे ही कर्म मानना होगा कि यदि बन्धन अनादि है तो वह अनन्त भी होगा, ऐसी के परिणाम स्वरूप भी वेदना होती है, अत: वे मूर्त हैं। किन्तु दार्शनिक स्थिति में मुक्ति की सम्भावना ही समाप्त हो जायेगी। दृष्टि से यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि कर्म मूर्त है तो, वह जैन दार्शनिकों ने इस समस्या का समाधान इस रूप में किया अमूर्त आत्मा पर प्रभाव कैसे डालेगा? जिस प्रकार वायु और अग्नि कि कर्म और विपाक की यह परम्परा कर्म विशेष की अपेक्षा से तो अमूर्त आकाश पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं डाल सकती है, उसी सादि और सान्त है, किन्तु प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और अनन्त है। प्रकार कर्म का अमूर्त आत्मा पर भी कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए। पुनः कर्म और विपाक की परम्परा का यह प्रवाह भी व्यक्ति विशेष की जैनदार्शनिक यह मानते हैं कि जैसे अमूर्त ज्ञानादि गुणों पर मूर्त दृष्टि से अनादि तो है, अनन्त नहीं। क्योंकि प्रत्येक कर्म अपने बन्धन मदिरादि का प्रभाव पड़ता है, वैसे ही अमूर्त जीव पर भी मूर्त कर्म का की दृष्टि से सादि है। यदि व्यक्ति नवीन कर्मों का आगमन रोक सके तो प्रभाव पड़ता है। उक्त प्रश्न का दूसरा तर्क-संगत एवं निर्दोष समाधान यह परम्परा स्वत: ही समाप्त हो जायेगी, क्योंकि कर्म-विशेष तो सादि यह भी है कि कर्म के सम्बन्ध से आत्मा कंथचित् मूर्त भी है। क्योंकि है ही और जो सादि है वह कभी समाप्त होगा ही। संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मद्रव्य से सम्बद्ध है, इस अपेक्षा से जैन दार्शनिकों के अनुसार राग-द्वेष रूपी कर्मबीज के भुन आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं है, अपितु कर्म से सम्बद्ध होने के कारण जाने पर कर्म प्रवाह की परम्परा समाप्त हो जाती है। कर्म और विपाक स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी वस्तुतः कथंचित् मूर्त है। इस दृष्टि से भी की परम्परा के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसके आधार आत्मा पर मूर्तकर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः पर बन्धन का अनादित्व व मुक्ति से अनावृत्ति की समुचित व्याख्या जिस पर कर्मसिद्धान्त का नियम लागू होता है, वह व्यक्तित्व अमूर्त सम्भव है। नहीं है। हमारा वर्तमान व्यक्तित्व शरीर (भौतिक) और आत्मा (अभौतिक) का एक विशिष्ट संयोग है। शरीरी आत्मा भौतिक बाह्य तथ्यों से कर्मफलसंविभाग का प्रश्न अप्रभावित नहीं रह सकता। जब तक आत्मा-शरीर (कर्म-शरीर) के क्या एक व्यक्ति अपने शुभाशुभ कर्मों का फल दूसरे को दे बन्धन से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक वह अपने को भौतिक प्रभावों सकता है या नहीं अथवा दूसरे के कर्मों का फल उसे प्राप्त होता है या से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रख सकती। मूर्त शरीर के माध्यम से ही नहीं, यह दार्शनिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। भारतीय चिन्तन में उस पर मूर्तकर्म का प्रभाव पड़ता है। हिन्दू परम्परा मानती है कि व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों का फल उसके म आत्मा और कर्मवर्गणाओं में वास्तविक सम्बन्ध स्वीकार पूर्वजों व सन्तानों को मिल सकता है। इस प्रकार वह इस सिद्धान्त को करने पर यह प्रश्न उठता है कि मुक्त अवस्था में भी जड़ कर्मवर्गणाएँ मानती है कि कर्मफल का संविभाग सम्भव है।२१ इसके विपरीत बौद्ध आत्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहेंगी, क्योंकि मुक्ति-क्षेत्र में भी परम्परा कहती है कि व्यक्ति के पुण्यकर्म का ही संविभाग हो सकता है, कर्मवर्गणाओं का अस्तित्व तो है ही। इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों का पापकर्म का नहीं। क्योंकि पापकर्म में उसकी अनुमति नहीं होती हैं। उत्तर यह है कि जिस प्रकार कीचड़ में रहा लोहा जंग खाता है, परन्तु पुनः उनके अनुसार पाप सीमित होता है अत: इसका संविभाग नहीं हो स्वर्ण नहीं, उसी प्रकार जड़कर्म पुद्गल उसी आत्मा को विकारी बना सकता, किन्तु पुण्य के अपरिमित होने से उसका ही संविभाग सम्भव सकते हैं, जो राग-द्वेष से अशुद्ध है। वस्तुत: जब तक आत्मा भौतिक है।२२ किन्तु इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण भिन्न है, उनके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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