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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २०२ कर्म का भौतिक स्वरूप हमारे स्वभाव में परिवर्तन का कारण हमारे जैव-रसायनों एवं रक्तजैनदर्शन में कर्म चेतना से उत्पन्न क्रिया मात्र नहीं है,अपितु रसायनों का परिवर्तन है। उसी प्रकार कर्मवर्गणाएँ हमारे मनोविकारों के यह स्वतन्त्र तत्त्व भी है। आत्मा के बन्धन का कारण क्या है? जब सृजन में निमित्त कारण होती हैं। पुन: जिस प्रकार हमारे मनोभावों के यह प्रश्न जैन दार्शनिकों के समक्ष आया तो उन्होंने बताया कि आधार पर हमारे जैव-रसायन एवं रक्तरसायन में परिवर्तन होता है, वैसे आत्मा के बन्धन का कारण केवल आत्मा नहीं हो सकती। वस्तुतः ही आत्मा में विकारी भावों के कारण जड़ कर्मवर्गणा के पुद्गल कर्म कषाय (राग-द्वेष) अथवा मोह (मिथ्यात्व) आदि जो बन्धक मनोवृत्तियाँ रूप में परिणित हो जाते हैं। अत: द्रव्यकर्म और भावकर्म भी परस्पर हैं, वे भी स्वत: उत्पन्न नहीं हो सकतीं, जब तक कि वे पूर्वबद्ध सापेक्ष हैं। पं० सुखलाल जी लिखते हैं भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म, कर्मवर्गणाओं के विपाक (संस्कार) के रूप में चेतना के समक्ष निमित्त है और द्रव्यकर्म के होने में भावकर्म निमित्त है१९। दोनों आपस उपस्थित नहीं होती है। जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शरीर में बीजांकुर की तरह सम्बद्ध हैं। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से रसायनों के परिवर्तन से संवेग (मनोभाव) उत्पत्र होते हैं और उन बीज उत्पन्न होता है, उनमें किसी को पूर्वापर नहीं कहा जा सकता है, संवेगों के कारण ही शरीर-रसायनों में परिवर्तन होता है। यही स्थिति वैसे इनमें भी किसी की पूर्वापरता का निश्चय नहीं हो सकता है। प्रत्येक आत्मा की भी है। पूर्व कर्मों के कारण आत्मा में राग-द्वेष आदि द्रव्यकर्म की अपेक्षा से भावकर्म पूर्व होगा तथा प्रत्येक भावकर्म की मनोभाव उत्पत्र (उदित) होते हैं और इन उदय में आये मनोभावों के अपेक्षा से द्रव्यकर्म पूर्व होगा। क्रियारूप परिणित होने पर आत्मा नवीन कर्मों का संचय करता है। द्रव्यकर्म एवं भावकर्म की इस अवधारणा के आधार पर बन्धन की दृष्टि से कर्मवर्गणाओं के कारण मनोभाव उत्पन्न होते हैं जैन-कर्मसिद्धान्त अधिक युक्तिसंगत बन गया है। जैन कर्मसिद्धान्त कर्म और उन मनोभावों के कारण जड़ कर्मवर्गणाएँ कर्म का स्वरूप के भावात्मक पक्ष पर समुचित बल देते हुए भी जड़ और चेतन के मध्य ग्रहण कर आत्मा को बन्धन में डालती हैं। जैन विचारकों के अनुसार एक वास्तविक सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है। कर्म जड़-जगत् एवं एकान्त रूप से न तो आत्मा स्वत: ही बन्धन का कारण है, न चेतना के मध्य एक योजक कड़ी है। जहाँ एक ओर सांख्य-योग दर्शन कर्मवर्गणा के पुद्गल ही। दोनों निमित्त एवं उपादान के रूप में एक के अनुसार कर्म-पूर्णत: जड़ प्रकृति से सम्बन्धित है, अत: उनके दूसरे से संयुक्त होकर ही बन्धन की प्रक्रिया को जन्म देते हैं। अनुसार वह प्रकृति ही है, जो बन्धन में आती है और मुक्त होती है, वहीं दूसरी ओर बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्म संस्कार रूप है अत: वे द्रव्यकर्म और भावकर्म चैतसिक हैं। इसलिए उन्हें मानना पड़ा कि चेतना ही बन्धन एवं मुक्ति कर्मवर्गणाएँ या कर्म का भौतिक पक्ष, द्रव्यकर्म कहलाता है। का कारण है। किन्तु जैन विचारक इन एकांगी दृष्टिकोणों से सन्तुष्ट जबकि कर्म की चैतसिक अवस्थाएँ अर्थात् मनोवृत्तियाँ, भावकर्म है। नहीं हो पाये। उनके अनुसार संसार का अर्थ है-जड़ और चेतन का आत्मा के मनोभाव या चेतना की विविध विकारित अवस्थाएँ भावकर्म पारस्परिक बन्धन या उनकी पारस्परिक प्रभावशीलता तथा मुक्ति का हैं और ये मनोभाव जिस निमित्त से उत्पन्न होते हैं, वह पुद्गल-द्रव्य अर्थ है-- जड़ एवं चेतन की एक दूसरे को प्रभावित करने की सामर्थ्य द्रव्यकर्म हैं। आचार्य नेमिचन्द गोम्मटसार में लिखते हैं कि पुद्गल का समाप्त हो जाना। द्रव्यकर्म है और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति भावकर्म है १७ आत्मा में जो मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग-द्वेष आदि भाव भौतिक एवं अभौतिक पक्षों की पारस्परिक प्रभावकता हैं, वे ही भाव कर्म हैं, और उनकी उपस्थिति में कर्मवर्गणा के जो जिन दार्शनिकों ने चरम-सत्य के सम्बन्ध में अद्वैत की पुद्गल परमाणु ज्ञानावरण आदि कर्मप्रकृतियों के रूप में परिणत होते धारणा के स्थान पर द्वैत की धारणा स्वीकार की, उनके लिए यह प्रश्न हैं, वे ही द्रव्यकर्म हैं। द्रव्यकर्म का कारण भावकर्म है और भावकर्म का बना रहा कि वे दोनों तत्त्व एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। कारण द्रव्य कर्म है। आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्त्री में द्रव्यकर्म को अनेक विचारकों ने द्वैत को स्वीकारते हुए भी उनके पारस्परिक सम्बन्ध आवरण व भावकर्म को दोष कहा है। चूंकि द्रव्यकर्म आत्मशक्ति के को अस्वीकार किया। किन्तु जगत् की व्याख्या इनके पारस्परिक सम्बन्ध प्रकटन को रोकता है, इसलिए वह आवरण है और भाव कर्म स्वयं के अभाव में सम्भव नहीं है। पश्चिम में यह समस्या देकार्त के सामने आत्मा की विभाव अवस्था है, अत: वह दोष है १८५ कर्मवर्गणा के प्रस्तुत हुई थी। देकार्त ने इसका हल पारस्परिक प्रतिक्रियावाद के पुद्गल तब तक कर्म रूप में परिणित नहीं होते हैं, जब तक ये आधार पर किया भी, किन्तु स्पिनोजा उससे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने भावकों द्वारा प्रेरित नहीं होते हैं। किन्तु साथ ही यह भी स्मरण रखना प्रश्न उठाया कि दो स्वतन्त्र सत्ताओं में परस्पर प्रतिक्रिया सम्भव कैसे होगा कि आत्मा में जो विभावदशाएँ हैं, उनके निमित्त कारण के रूप है? अत: स्पिनोजा ने प्रतिक्रियावाद के स्थान पर समानान्तरवाद की में द्रव्यकर्म भी अपना कार्य करते हैं। यह सत्य है कि दूषित मनोविकारों स्थापना की। लाईबिनीत्ज ने पूर्वस्थापित सामञ्जस्य की अवधारणा का जन्म आत्मा में ही होता है, किन्तु उसके निमित्त (परिवेश) के रूप प्रस्तुत की२°। भारतीय चिन्तन में भी प्राचीन काल से इस सम्बन्ध में में कर्मवर्गणाएँ अपनी भूमिका का अवश्य निर्वाह करती हैं। जिस प्रकार प्रयत्न हुए है। उसमें यह प्रश्न उठाया गया कि लिंगशरीर या कर्मशरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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