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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १९८ आचरण करने वाला, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि को सहन करने ३. आचारांग, १/१/१ वाला, लाभ-अलाभ में विचलित नहीं होने वाला, सेवा तथा स्वाध्याय ४. कठोपनिषद्, ३/३ हेतु तत्पर, अहंकार रहित और आचार्य के कठोर वचनों को सहन करने आचारांग, २/३/१५/१ में समर्थ शिष्य ही शिक्षा का अधिकारी है।३१ ग्रन्थकार यह भी कहता ६. सूत्रकृतांग, १/१२/११ है कि शास्त्रों में शिष्य की जो परीक्षा-विधि कही गयी है उसके माध्यम ७. उत्तराध्ययन, ३२/२ से शिष्य की परीक्षा करके ही उसे मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त करना चाहिये।३२ ८. वही, २९/६० उत्तराध्ययनसूत्र में शिष्य के आचार-व्यवहार के सन्दर्भ में ९. वही, ३२/२ निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो शिष्य गुरु के सान्निध्य में रहता १०. वही, ३२/१०२-१०६ है, गुरु के संकेत व मनोभावों को समझता है वही विनीत कहलाता ११. दशवकालिक ९/४ है। इसके विपरीत आचरण वाला अविनीता योग्य शिष्य सदैव गुरु के १२. चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक (चन्दावेज्झया)-सं० डॉ० सुरेश सिसोदिया निकट रहे, उनसे अर्थ पूर्ण बात सीखे और निरर्थक बातों को छोड़ दे, आगम-अहिंसा संस्थान, उदयपुर, ६२ गुरु द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे, शूद्र व्यक्तियों के संसर्ग से १३. वही, ५६ दूर रहे, यदि कोई गलती हो गयी हो तो उसे छिपाये नहीं अपितु यथार्थ १४. वही, ६४ रूप में प्रकट कर दे। बिना पूछे गुरु की बातों में बीच में न बोले, १५. वही, ६८ अध्ययन काल में सदैव अध्ययन करे। आचार्य के समक्ष बराबरी से न १६. उत्तराध्ययनसूत्र, ११/३ बैठे, न उनके आगे, न पीछे सटकर बैठे। गुरु के समीप उनसे अपने १७. वही, ११/४-५ शरीर को सटाकर भी नहीं बैठे, बैठे-बैठे ही न तो कुछ पूछे और न १८. चन्द्रवेध्यक, ७७ उत्तर दे। गुरु के समीप उकडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर जो पूछना १९. रायपसेनीयसुत्त (घासीलाल जी म.) सूत्र ९५६, पृ. ३३८हो उसे विनयपूर्वक पूछे।३३ ये सभी तथ्य यह सूचित करते हैं कि जैन शिक्षा-व्यवस्था में २०. समवायांग-समवाय ७२ (देखें-टीका) शिष्य के लिए अनुशासित जीवन जीना अवश्यक था। यह कठोर २१. रायपसेनीयसुत्त (घासीलालजी म.) सूत्र ९५६, पृ. ३३८अनुशासन वस्तुत: बाहर से थोपा हुआ नहीं था, अपितु मूल्यात्मक ३४१ शिक्षा के माध्यम से इसका विकास अन्दर से ही होता था, क्योंकि जैन २२. वही, पृ. ३३८-३४१ शिक्षा-व्यवस्था में सामान्यतया शिष्य में ताड़न-वर्जन की कोई व्यवस्था २३. चन्द्रवेध्यक, २० नहीं थी। आचार्य और शिष्य दोनों के लिए ही आगम में उल्लेखित २४. वही, ५१-५३ अनुशासन का पालन करना आवश्यक था। जैन शिक्षा विधि में २५. वही, २५,२६ अनुशासन आत्मानुशासन था। व्यक्ति को दूसरे को अनुशासित करने २६. वही, ३० का अधिकार तभी माना गया था, जब वह स्वयं अनुशासित जीवन २७. भगवतीआराधना सं०५० कैलाशचंदजी, भारतीय ज्ञानपीठ, जीता हो। आचार्य तुलसी ने 'निज' पर शासन फिर अनुशासन का जो देहली, ५२८ सूत्र दिया है वह वस्तुत: जैन शिक्षा विधि का सार है। शिक्षा के साथ २८. वही, टीका जब तक जीवन में स्वस्फूर्त अनुशासन नहीं आयेगा तब तक वह २९. स्थानांगसूत्र-स्थान, ८/१५ सार्थक नहीं होगी। ३०. प्रवचनसारोद्धार, द्वार ६४ ३१. देखें- उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय १ एवं ११ सन्दर्भ ३२. चन्द्रवेध्यक, ५३ १. बाइबिल, उद्धृत नये संकेत, आचार्यरजनीश, पृ. ५७ ३३. उत्तराध्ययनसूत्र, १/२-२२ २. इसिभासियाई, १७/३ ३४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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