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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १७८ है लाक्षणिक दृष्टि से उपलम्भ का अर्थ है एक की उपलब्धि पर दूसरे एवं अन्तःप्रज्ञात्मक हैं डा० बारलिंगे ने भी स्वयं इस बात को स्वीकार की उपलब्धि अर्थात् अन्वय या सहचार और अनुपलम्भ का अर्थ है किया हैं वे लिखते हैं- It is not also ordinary perception एक की अनुपलब्धि (अभाव) पर दूसरे की अनुपलब्धि (अभाव) because there is no Indriya Sanni Karsha with smoke in अर्थात् व्यतिरेक। किन्तु अनुपलम्भ का एक दूसरा भी अर्थ है वह है all the cases. उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि अमूर्त जाति व्याघात के उदाहरण की अनुपलब्धि अर्थात् व्यभिचार अदर्शन। इस सम्बन्ध के ज्ञान के लिए ऐसी ही अनानुभविक पद्धति आवश्यक हैं प्रकार जैन दर्शन के अनुसार अन्वय, व्यतिरेक रूप सहचार दर्शन और जैन दार्शनिकों ने तर्क को एक अतीन्द्रिय अर्थात् ऐन्द्रिक अनुभवों पर व्यभिचार अदर्शन के निमित्त से तर्क के द्वारा व्याप्ति ज्ञान होता है। यहाँ आधारित किन्तु उनसे पार जाने वाला, उनका अतिक्रमण करने वाला यह ध्यान रखना चाहिए कि अन्वय और व्यतिरेक दोनों सहचार के ही मानकर इस आवश्यकता की पूर्ति कर ली हैं। डा० प्रणवकुमार सेन ने रूप हैं। एक उपस्थिति में सहचार है और दूसरा अनुपस्थिति में सहचार विश्व दर्शन परिषद् के देहली अधिवेशन में प्रस्तुत अपने लेख में इस है। फिर भी ये तीनों सीधे व्याप्ति से ग्राहक नहीं हैं क्योंकि आनुभविक बात का स्पष्ट संकेत किया है कि समस्या चाहे आगमन की हो या तथ्य प्रत्यक्ष के ही रूप हैं (जैन दार्शनिक अनुपलब्धि या अभाव का भी निगमन की उन्हें बिना अन्तः प्रज्ञात्मक आधार के सुलझाया नहीं जा समावेश भी प्रत्यक्ष में ही करते हैं)। अत: इनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव सकता है (देखिए Knowledge, Culture and Value, P.41-50) नहीं है। कोई भी अनुभविक पद्धति चाहे वह अन्वय व्यतिरेकी हो या जैन दार्शनिकों के अनुसार व्यक्ति और जाति में कथचित् अभेद है अत: उनका ही मिलाजुला कोई अन्य रूप हो, व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं तर्क अपनी अन्तः प्रज्ञात्मक शक्ति के द्वारा विशेष के प्रत्यक्षीकरण के करा सकती है। पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम ने भी इस बात को स्पष्ट करने समय ही सामान्य को भी जान लेता है और इस प्रकार विशेषों के का प्रयास किया है कि अनुभववाद या प्रत्यक्ष के माध्यम से कार्य प्रत्यक्ष के आधार पर सामान्य वाक्य की स्थापना कर सकता है। यह कारण ज्ञान अर्थात् व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। प्रत्यक्षाधारित आगमन कार्य अन्तःप्रज्ञा या तर्क के अतिरिक्त प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी कभी भी सार्वकालिक और सार्वदेशिक सामान्य वाक्य की स्थापना नहीं अन्य प्रमाण के द्वारा सम्भव नहीं है। कर सकता हैं इसलिए जैन दार्शनिकों ने तर्क की परिभाषा में अन्वय, व्यतिरेक एवं व्यभिचार अदर्शन रूप प्रत्यक्ष के तथ्यों को केवल व्याप्ति ईहा का स्वरूप और तर्क से उसकी भिन्नताः का निमित्त या सहयोगी मात्र माना। उनके अनुसार वस्तुत: व्याप्ति का यह सत्य है कि जैन दार्शनिकों ने प्रारम्भ में ईहा और तर्क ग्रहण उस आकारिक (मानसिक) संवेदन से होता है जो त्रैकालिक को पर्यायवाची माना था, किन्तु प्रमाण युग में ईहा और तर्क दोनों साध्य-साधन सम्बन्ध को अपना विषय बनाकर यह निर्णय देता है कि स्वतन्त्र प्रमाण मान लिये गये थे। यद्यपि यह प्रश्न स्वतन्त्र रूप से 'इसके होने पर यह होगा। तर्क की उपरोक्त परिभाषा में महत्वपूर्ण शब्द विचारणीय अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने ईहा के स्वरूप को, जिस है- इति आकारं संवेदनं ऊहः तर्कापरपर्याय। रूप में प्रस्तुत किया है, उस रूप में क्या उसे प्रमाण माना जा सकता __ इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक तर्क में एक अन्तःप्रज्ञात्मक है? क्योंकि ईहा निर्णयात्मक ज्ञान नहीं होकर तो मात्र ज्ञान प्रक्रिया है तत्त्व होता है, जो प्रत्यक्ष के अनुभवों को अपना आधार बनाकर अपना इसका क्रम इस प्रकार हैकालिक निर्णय देता है या सामान्य वाक्य की स्थापना करता है। ऐन्द्रिक संवेदन→ अवग्रह → संशय → ईहा → अवायतर्क तथा आगमन की प्रकृति को लेकर अभी काफी विवाद धारणा → स्मृति → प्रत्यभिज्ञा → तर्क → अनुमान चल रहा है। डा. बारलिंगे तर्क को आपादन (Implication) या इसमें संशय और धारणा को छोड़कर शेष सभी को प्रमाण निगमनात्मक मानते हैं। उन्होंने बड़ी गम्भीरता के साथ इस मत का माना है- यद्यपि ये किस अर्थ में प्रमाण है यह एक अलग प्रश्न हैप्रतिपादन अपने ग्रन्थ AModerm Introduction to Indian Logic जिस पर किसी स्वतन्त्र निबन्ध में विचार किया जा सकता है, किन्तु मैं में किया है। इसके विपरीत डा० भारद्वाज ने विश्व दर्शन कांग्रेस के अभी इस प्रश्न को हाथ में लेना नहीं चाहूँगा। यहाँ मूल प्रश्न यह है कि देहली अधिवेशन में पठित अपने निबन्ध में न्याय सूत्र के टीकाकारों के ईहा से स्वतन्त्र तर्क को प्रमाण क्यों मानना पड़ा- मेरी दृष्टि में इसका मत की रक्षा करते हुए तर्क को व्यभिचार शंका प्रतिबन्धक (Tarka as मूल आधार व्याप्ति ग्रहण की समस्या ही रहा होगा। अनुमान के लिए Contrafactual conditional) माना है जो कि उसके आगमनात्मक व्याप्ति ग्रहण एक अनिवार्य पूर्व शर्त है (Pre-condition) और ईहा पक्ष पर बल देता हैं, किन्तु ऐसा तर्क व्याप्ति ग्राहक नहीं बन सकता से व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं था। प्रमाणमीमांसा में ईहा की चर्चा के केवल सहयोगी बन सकता, अत: उसमें अन्तः प्रज्ञात्मक पक्ष को प्रसंग में यह प्रश्न उठाया गया था कि यदि ईहा और तर्क एक ही अर्थ स्वीकार करना आवश्यक है। स्वयं डा. बारलिंगे ने तर्क को अनानुभविक के द्योतक हैं तो फिर ईहा से पृथक् तर्क को पृथक् प्रमाण क्यों माना (Non-empirical) माना हैं वस्तुत: व्याप्ति ग्रहण के हेतु एक अनानुभविक गया? उसे उत्तर में कहा गया कि ईहा वर्तमान में उपस्थित अर्थ को ही पद्धति चाहिए। इसीलिए न्याय दार्शनिकों ने व्याप्ति ग्रहण का अन्तिम अपना विषय बनाती है। अत: उसके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति एवं सीधा उपाय सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति को माना, जो कि अनानुभविक सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं है। पुन: ईहा प्रत्यक्ष के विषय को अर्थात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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