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________________ जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भों में मूल्यांकन यह कि इनकी विचार की विषय वस्तु भिन्न-भिन्न हैं दूसरे यह कि ईहा, प्राक्कल्पना और तर्क का प्रतीकात्मक स्वरूप भी एक नहीं है । सम्भवतः न्याय दार्शनिक इसी भ्रान्ति के कारण तर्क को सीधे-सीधे व्याप्ति ग्राहक नहीं मानकर मात्र सहयोगी मानते रहें। यदि 'तर्क' का भी वास्तविक रूप सम्भावनामूलक ही है तो निश्चय ही न्याय दार्शनिकों की यह धारणा सत्य होगी कि इस पद्धति से व्याप्ति ग्रहण नहीं हो सकता हैं प्रथम तो यह कि सम्भावित विकल्पों का निरसन करते हुए हमारे पास जो अवशिष्ट विकल्प रह जायेगा वह भी सम्भावित ही होगा निर्णायक नहीं। दूसरे यह कि सम्भावित विकल्पों के निरसन की इस पद्धति के द्वारा अविनाभाव या व्याप्ति ग्रहण कभी भी सम्भव नहीं है। क्योंकि इस बात की क्या गारण्टी है कि सभी सम्भावित विकल्पों को जान लिया गया है और उस तथ्य की व्याख्या के सम्बन्ध में जितने भी विकल्प हो सकते हैं उनमें एक को छोड़कर शेष सभी निरस्त हो गये। जब तक हम इस सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं हो जाते (जो कि सम्भव नहीं है) व्याप्ति या अविनाभाव को नहीं जान सकते। तीसरे यदि यह विधि ऐन्द्रिक अनुभव पर आधारित है, तो केवल जो कारण नहीं है उनके निरसन में ही सहायक हो सकती है, व्याप्ति ग्राहक नहीं। जैन दार्शनिकों का यह मानना कि चाहे ईहात्मक ज्ञान प्रामाणिक हो, किन्तु उससे व्याप्ति ग्रहण नहीं होता, उचित ही है। पाश्चात्य तार्किकों के द्वारा कारण सम्बन्ध की खोज में प्राक्कल्पना की सुझावात्मक भूमिका मानना भी सही है और यदि तर्क का यही स्वरूप होता तो नैयायिकों का यह मानना भी सही होता कि तर्क व्याप्ति ग्रहण में मात्र सहयोगी हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में तर्क का वास्तविक स्वरूप ऐसा नहीं है, जैसा कि वात्स्यायन एवं जयन्त आदि टीकाकारों ने मान लिया है। स्वयं डा० बारलिंगे ने भी तर्क स्वरूप के सम्बन्ध में उनके इस दृष्टिकोण को समुचित नहीं माना है वे लिखते हैं- It appears to me that this particular function of Tarka has been overlooked by com mentators of Nyaya sutra and by many other Logicians (A modern Introduction to Indian Logic P. 123 ) सर्वप्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि तर्क का विषय वस्तु के गुणों का ज्ञान या विधेय ज्ञान नहीं हैं अपितु कार्यकारण सम्बन्ध, अविनाभाव सम्बन्ध या आपादान सम्बन्ध का ज्ञान है। 'यह पुरुष हो सकता' इस प्रकार के ज्ञान का तर्क से कोई लेना-देना नहीं है। यह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान हैं। इस समस्त भ्रान्ति के पीछे न्याय सूत्र में दी गई तर्क की परिभाषा की गलत व्याख्या हैं न्याय सूत्र में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई हैअविज्ञातत्त्वे अर्थ कारणोपपतितः तत्वज्ञानार्थम् कहा तर्कः न्यायसूत्र १/१/४० वस्तुतः यहाँ तर्क का तात्पर्य मात्र अविज्ञात वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान के लिए की गई कहा (बौद्धिक कल्पना) से नहीं है। अपितु इसमें महत्त्वपूर्ण शब्द है- 'कारणोपपत्तितः' वह कारण सम्बन्ध की युक्ति द्वारा होने वाला तत्त्वज्ञान है या दो तथ्यों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध का ज्ञान है। जब तर्क कार्य कारण सम्बन्ध सूचित करता है तो Jain Education International १७७ फिर तर्क सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान है यह कहने का क्या आधार है? उपपत्तित: शब्द सिद्ध होने (To be provod) का सूचक है और जब कार्य कारण भाव सिद्ध हो गये तो फिर वह सम्भावना मूलक एवं अनिश्चित ज्ञान कैसे कहा जा सकता है? दूसरे मूल सूत्र में कहीं ऐसा संकेत नहीं है कि जिससे यह कहा जा सके कि तर्क सम्भावनात्मक या अनिश्चित ज्ञान हैं अतः नैयायिकों की यह धारणा कि तर्क सम्भावना मूलक ज्ञान है स्वतः खण्डित हो जाती है। साथ ही सूत्र में रखा गया 'तत्त्वज्ञानार्थम्' शब्द भी इस बात को सिद्ध करता है कि तर्क वस्तु के मूर्त या बाह्य स्वरूप का ज्ञान नहीं, अपितु अमूर्त स्वरूप का ज्ञान है। वह वस्तु ज्ञान (Material knowledge) नहीं, तत्व ज्ञान (Metaphysical knowledge) है। जैसा कि हमने पूर्व में बताया तर्क का विषय अविनाभाव सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध, व्यक्ति-जाति सम्बन्ध, वर्ग सदस्यता सम्बन्ध आदि है। तर्क किसी धूम विशेष या अग्नि विशेष को नहीं अपितु धूम जाति और अग्नि जाति को अपना विषय बनाता हैं क्योंकि धूम विशेष या अग्नि विशेष के हजारों उदाहरण भी व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इसके लिए विशेष का प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार सामान्य विशेष से पृथक नहीं पाया जाता है। फिर भी व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध की सिद्धि सामान्य के ज्ञान से होगी विशेष के ज्ञान से नहीं तर्क सामान्य का ज्ञान है। न्याय दार्शनिक तर्क की इस प्रकृति को स्पष्ट नहीं कर सके, अतः व्याप्ति ग्रहण की इस समस्या को सुलझाने हेतु उन्हें सामान्य लक्षणाप्रत्यासत्ति के नाम से प्रत्यक्ष के एक नये प्रकार की कल्पना करनी पड़ी। तुलनात्मक दृष्टि से जैन दर्शन का तर्क न्याय दर्शन के तर्क और सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के योग के बराबर हैं मात्र यही नहीं जैन दार्शनिकों ने तर्क की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह इतनी व्यापक है कि उसमें व्याप्ति ग्रहण के इतर साधनों का भी समावेश हो जाता है । स्याद्वादमंजरी में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई है। उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्या लम्बनमिदस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहस्तर्कापरपर्यायः यथा यावान् कश्चिद धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मिन्त्रसति असौ न भवत्येवेतिया। - स्याद्वादमंजरी २८ उपलम्भ अर्थात् सहचार के दर्शन और अनुपलम्भ अर्थात् व्याभिचार अदर्शन से फलित साध्यसाधन के त्रैकालिक सम्बन्ध आदि के ज्ञान के आधार पर तथा 'इसके होने पर ही यह होगा' जैसे यदि कोई धुआँ है तो वह सब अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के नहीं होने पर नहीं होता है— इस आकार वाला जो (मानसिक) संवेदन है, वह ऊह है। उसका ही दूसरा नाम तर्क है। लगभग सभी जैन दार्शनिकों ने तर्क की अपनी व्याख्याओं में उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्दों का प्रयोग किया है। सामान्यता उपलम्भ का अर्थ उपलब्ध होता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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