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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १६२ ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र: विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्यूसाइविकनकी है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, सत्तावान् है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके।"२१ इसे देखते सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं। इसी संदर्भ में डॉ० एस०एस० हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी बारलिंगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है। पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता की एक गोष्ठी में किया था। यद्यपि जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के और शब्दसंख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व को अवक्तव्य सिद्धांत का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता हैं क्योंकि जैन माना गया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्य भाव का न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावितसत्य और दुर्नय असत्यता के अनन्तवाँ भाग ही कथन किया जाने योग्य है।२२ अत: यह मान लेना परिचायक हैं। पुन: जैन दर्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य ऐसे उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश (सुनिश्चित मान्य है। सत्य या पूर्ण सत्य) कहा है। नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और और न असत्य। अत: सत्य और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि छठे अर्थ मान्य रहे हैं। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है। पुनः वस्तुतत्त्व अव्यक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्य की अनन्तधर्मात्मकता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित सत्यता के को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व समर्थक हैं क्योंकि वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है। को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उस कथित सत्यता के अतिरिक्त यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है। लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता रह जायेगा। अत: जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Three valued logic) या बहुमूल्यात्मक भी है। सत्ता अंशत: निर्वचनीय है और अंशत: अनिर्वचनीय। क्योंकि तर्कशास्त्र (Many valuedlogic) का समर्थक माना जा सकता है यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा है। इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पाँच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर सकता, क्योंकि उसमें नास्तिर नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है। मेरी दृष्टि में क्रमश: असत्य एवं अनियतता (Indeterminate) के सूचक नहीं हैं। अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो “है" और "नहीं सप्तभंगी का प्रत्येक भंग सत्य-मूल्य का सूचक है यद्यपि जैन विचारकों है" ऐसे विधि-प्रतिषेध का युगपद् (एक साथ) प्रतिपादन सम्भव नहीं ने प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी के रूप में सप्तभंगी के जो दो है, अत: अवक्तव्य भंग की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व रूप माने हैं, उसके आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि प्रमाणका कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएँ सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चित सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। असत्य का वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना सूचक तो केवल दुर्नय ही है। अत: सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है। होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं किन्तु मेरे शिष्य डॉ भिखारी राम यादव ने अपने प्रस्तुत (१) (अ.अ)यु उ अवक्तव्य है, शोध निबन्ध में अत्यन्त श्रमपूर्वक सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक सिद्ध (२) अ. उ अवक्तव्य है, किया है और अपने पक्ष के समर्थन में समकालीन पाश्चात्य तर्कशास्त्र (३) (अ) उ अवक्तव्य है। के प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। आशा है विद्वज्जन उनके इस प्रयास का सप्तभंगी के शेष चारों भंग संयोगिक हैं। विचार की स्पष्ट सम्यक् मूल्यांकन करेंगे। आज मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरे ही अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना शिष्य ने चिन्तन के क्षेत्र में मुझसे एक कदम आगे रखा है। हम गुरुकोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा शिष्य में कौन सत्य है या असत्य है यह विवाद हो सकता है यह को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। अतः निर्णय तो पाठकों को करना है; किन्तु अनेकान्त शैली में अपेक्षाभेद से इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है। दोनों भी सत्य हो सकते हैं। वैसे शास्त्रकारों ने कहा है कि शिष्य से पराजय गुरु के लिए परम आनन्द का विषय होता है क्योंकि वह उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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