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________________ १५८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आराधक हो सकते हैं।१६ इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। पूछा कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और सप्तभंगी : धर्मात्माओं का जागना।१७ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है। प्रश्नों के को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा है। "है" और "नहीं है" हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभीवस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है" (विधि) और "नहीं है" विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है। बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं। अर्थात् सीमित ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रकट करने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प "अवाच्य" या शून्यवाद और स्याद्वाद:१८ "अवक्तव्य" का सहारा लेते हैं, अर्थात् शब्दों के माध्यम से "है" और भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-इन दोनों को “नहीं है" की भाषायी सीमा में बाँधकर उसे कहा नहीं जा सकता है। अस्वीकार किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा। जबकि भगवान् इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत रूप से स्वीकृत विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।१९ सप्तभंगी में स्यात् करके एक विधिमार्ग अपनाया। भगवान् बुद्ध की परम्परा में विकसित अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य-ये तीन असंयोगी मौलिक शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित स्याद्वाद दोनों का ही लक्ष्य भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् एकान्तिक दार्शनिक विचारधाराओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य और स्यात् नास्ति-अवक्तव्यों ये इतना ही है कि जहां शून्यवाद एक निषेधप्रधान दृष्टि है वहीं स्याद्वाद तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात-अस्ति-नास्ति-अव्यक्तव्य, यह त्रिसंयोगी में एक विधायक दृष्टि है। शून्यवाद जो बात संवृति सत्य और परमार्थ भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य, सत्य के रूप में कहता है, वही बात जैन दार्शनिक व्यवहार और निश्चय इन तीन ही रूप- में होती है। अत: उससे तीन ही मौलिक भंग बनते नय के आधार पर प्रतिपादित करता है। शून्यवाद और स्याद्वाद में हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणितशास्त्र के संयोग नियम मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है। शून्यवाद अपने निष्कर्षों (Law of Combination) के आधार पर सात भंग ही बनते हैं, न में निषेधात्मक है और स्याद्वाद विधानात्मक है। शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण कम न अधिक। अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए तार्किक विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं यह कहा है कि जिज्ञासा और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् के हो सकते हैं। अत: जैन-आचार्यों की सप्तभंगी की यह व्यवस्था नहीं है। जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत निर्मल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को लेकर एककरता है कि वस्तुशाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ तो बनाई जा. सकी है, सत् भी है, असत् भी है। एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और हैं किन्तु अनन्तभंगी नहीं। श्वेताम्बर आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं। इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता स्कन्ध के संबंध में जो २३ भंगों की योजना है, वह वचन-भेद-कृत में शून्यवाद द्वारा प्रस्तुत शून्यता-शून्यता की धारणा और स्याद्वाद द्वारा संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही है।२० पंचास्तिकाय प्रस्तुत अनेकान्त की अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य और प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेष है। किन्तु जहाँ शून्यवादी उस दोष के भय से एकान्त को अस्वीकार परवर्ती साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं। अतः विद्वानों को इन भ्रमों करता है, वहीं स्याद्वादी, उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस सदोष का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों एकान्त को निर्दोष बना देता है। दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है तो अनन्त भंगी भी हो सकती हैं अथवा आगमों में सात भंग नहीं है। वह अपनी निषेधात्मक और विधेयात्मक दृष्टियों का ही है। शून्यवाद सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। का वस्तुतत्त्व जहाँ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य है, वहीं जैन दर्शन का सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के एक ही है। इन दोनों की विभिन्नता तो उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो तार्किक आकार (Logical forms) हैं,उसमें स्यात् शब्द कथन की कि वैचारिक आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक महावीर ने प्रस्तुत की थी। बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिणाम (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। शून्यवाद था तो महावीर के विधानात्मक दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद। कुछ जैन विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को इस सम्बन्ध में आदरणीय दलसुखभाई का लेख 'शून्यवाद और स्याद्वाद' अभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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