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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन १५७ रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है। इस सन्दर्भ में जैन चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाये, किन्तु निरपेक्ष कथन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं जबकि दूसरे कुछ विचारकों के किसी न किसी सन्दर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया उस सन्दर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है अन्यथा ने “स्याद्वादमंजरी" की भूमिका में सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य भ्रान्ति होने की संभावना रहती है। इसीलिए जैन-आचार्यों का कथन है बताया है। जबकि मुनि श्री नगराजजी ने “जैन दर्शन और आधुनिक कि जगत् में जो कुछ भी कहा जा सकता है, वह सब किसी विवक्षा या विज्ञान" नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने नय से गर्भित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षा रहित नहीं भर को ही निरपेक्ष है क्योंकि स्यादस्ति स्यानास्ति से परे वह भी नहीं होती है। वह सापेक्ष ही होती है। अत: वक्ता का कथन समझने के लिए है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत के ज्ञान भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है। का प्रश्न है उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके ज्ञान का पुनश्च जब वस्तुतत्त्व में अनेक विरुद्ध धर्म-युगल में रहे हुए विषय अनन्तधर्मात्मक वस्तु है। अत: सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त हैं, तो शब्दों द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें गुणों को अनन्त-अपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या क्रमिक रूप में ही कहा जा सकता है। शब्द एक समय में एक ही धर्म वैषयिक ज्ञान (Objective knowledge) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो को अभिव्यक्त कर सकता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन- का एक साथ कथन भाषा की सीमा के बाहर है। अत: किसी भी कथन आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु-मात्र स्याद्वाद में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) ही रह जायेंगे और एक की मुद्रा से अंकित हैं। किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ तक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है वह निरेपक्ष हो सकता है क्योंकि वह जावेगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन व्यवहार से श्रोता को विकल्प रहित होता है। सम्भवत: इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर कोई भ्रान्ति न हो इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित हो आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सकती है। जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न १३ इसीलिए कहा है सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु परमार्थत: तो वह आत्मा को ही जानता कि वह अपेक्षा पूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य है। वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है बना देता है तथा श्रोता को कोई भ्रान्ति भी नहीं होने देता है। किन्तु उसका वस्तु-विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है। स्याद्वाद और अनेकान्त : (द) भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता और सापेक्षता : साधारणतया अनेकान्त और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते सर्वज्ञ या पूर्णज्ञ के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार हैं।१४ अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है। किन्तु फिर कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। भी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्त स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता। व्यापक अर्थ का द्योतक है। जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापक-व्याप्य भाव उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह माना है। अनेकान्त व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्या अनेकान्त वाच्य है सापेक्षिक बन जाता है। क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के तो स्याद्वाद वाचक। अनेकान्त वस्तु स्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा-पद्धति। अनेकान्त दर्शन है, तो है। "है" और "नहीं है" की सीमा से घिरी हुई है। अत: भाषा पूर्ण स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग। सत्य को निरपेक्षतया अभिव्यक्त नही कर सकती है। प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, जबकि विभज्जवाद और स्याद्वाद : मानवीय भाषा की शब्द संख्या सीमित है। जितने वस्तु-धर्म हैं, उतने विभज्जवाद स्याद्वाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती शब्द नहीं हैं। अत: अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रहेंगे ही। पुनः मानव है। सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि की जितनी अनुभूतियाँ हैं, उन सबके लिए भी भाषा में पृथक-पृथक् वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें।१५ इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने शब्द नहीं हैं। हम गुड़, शक्कर, आम आदि की मिठास को भाषा में भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक! मैं पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति नहीं कर सकते क्योंकि सभी की मिठास के विभज्जवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं। विभज्जवाद वह सिद्धान्त है, जो लिए अलग-अलग शब्द नहीं हैं। आचार्य नेमिचन्द्र 'गोम्मटसार' में प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है। जब बुद्ध से यह पूछा गया कि लिखते हैं कि हमारे अनुभूत भावों को केवल अनन्तवाँ भाग ही गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मटसार, जीवकाण्ड ३३४)। सकते। किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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