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________________ जैन वाक्य दर्शन वाक्य भाषायी अभिव्यक्ति की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत वाक्य की परिभाषा को लेकर विभिन्न दार्शनिकों के विचारों में मतभेद वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दार्शनिकों पाया जाता है। प्रस्तुत विवेचन में हम सर्वप्रथम जैन आचार्यों की वाक्य के दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने के लिए जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने अपने की परिभाषा को स्पष्ट करेंगे और उसके बाद वाक्य की परिभाषा के ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्यपदीय ये दो श्लोक उद्धृत किये हैं सम्बन्ध में अन्य दार्शनिक अवधारणाओं को और उनकी जैन दार्शनिकों जिनमें उस काल में प्रचलित वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप सम्बन्धी द्वारा की गई समीक्षा को प्रस्तुत करेंगे तथा यह देखने का प्रयास करेंगे विभिन्न धारणाओं का एक परिचय मिल जाता है। . कि जैन दार्शनिकों ने वाक्य का जो स्वरूप निश्चित किया है, वह किस सीमा तक तर्क-संगत है। आरण्यतशब्दः संघातो जातिसंघातवर्तिनी । प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्य के स्वरूप को स्पष्ट एकोऽनवयवशब्दः क्रमो बुद्ध्यनुसंहति ।। करते हुए लिखते हैं कि "अपने वाच्यार्थ को स्पष्ट करने के लिए एक पदमाधं पृथक्सर्वपदं साकांक्षमित्यपि । दूसरे की परस्पर अपेक्षा रखनेवाले पदों का निरपेक्ष समूह वाक्य है।"१ वाक्यं प्रतिमतिर्भिन्ना बहुधा न्यायवादिनाम ।। वाक्य की इस परिभाषा से हमारे सामने दो बातें स्पष्ट होती हैं। प्रथम वाक्यपदीय - २/१-७ तो यह कि वाक्य की रचना करने वाले पद अपने वाच्यार्थ का अवबोध भारतीय दार्शनिकों में वाक्य के स्वरूप को लेकर दो महत्त्वपूर्ण कराने के लिए परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, किन्तु उनसे दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। वैयाकरणिकों का मत है कि वाक्य एक निर्मित वह वाक्य अपने वाक्यार्थ का अवबोध कराने के लिए अन्य अखण्ड इकाई है, वे वाक्य में पद को महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। उनके किसी की अपेक्षा नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में अपना अर्थबोध कराने अनुसार, वाक्य से पृथक् पद का कोई अस्तित्त्व ही नहीं है, जबकि में वाक्य स्वयं समर्थ होता है किन्तु पद स्वयं समर्थ नहीं होते हैं। जब दूसरा दृष्टिकोण जिसका समर्थन न्याय, सांख्य, मीमांसा आदि दर्शन सापेक्ष या साकांक्ष पद परस्पर मिलकर एक ऐसे समूह का निर्माण कर करते हैं, वाक्य को खण्डात्मक इकाइयों अर्थात् शब्दों और पदों से लेते हैं जिसे अपना अर्थबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा निर्मित मानता है। इनके अनुसार पद वाक्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है नहीं रहती है, तब वाक्य बनता है। संक्षेप में साकांक्ष/सापेक्ष पदों का और अपने आप में एक स्वतन्त्र इकाई है। यद्यपि इस प्रश्न को लेकर निरपेक्ष/नि:कांक्ष समूह वाक्य है। पदों की सापेक्षता और उनसे निर्मित कि क्रियापद (आख्यात पद) अथवा उद्देश्यपद आदि में कौन-सा समूह की निरपेक्षता ही वाक्य का मूल तत्त्व है। वाक्य का प्रत्येक पद पद वाक्य का प्राण है- इन विचारकों में भी मतभेद पाया जाता है। दूसरे पद की अपेक्षा रखता है। वह दूसरे के बिना अपूर्ण-सा प्रतीत वाक्यपदीय के आधार पर प्रभाचन्द्र ने वाक्य की परिभाषा एवं होता है। अपने अर्थबोध के लिए दूसरे की आकांक्षा या अपेक्षा रखने स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न मतों का उल्लेख किया है और उनकी वाला पद साकांक्ष पद कहलाता है और जितने साकांक्ष पदों को समीक्षा की हैमिलाकर यह आकांक्षा पूरी हो जाती है, वह इकाई वाक्य कही जाती है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार यहाँ वाक्य में प्रयुक्त पद (१) आख्यात पद ही वाक्य है सापेक्ष या साकांक्ष होते हैं, वहाँ उन पदों से निर्मित वाक्य अपना कुछ दार्शनिकों के अनुसार आख्यातपद या क्रियापद ही अर्थबोध कराने की दृष्टि से निरपेक्ष या निराकांक्ष होता है। वस्तुतः वाक्य का प्राण है। वही वाक्य का अर्थ वहन करने में समर्थ है। परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा रखनेवाले सापेक्ष या साकांक्ष पदों को क्रियापद के अभाव में वाक्यार्थ स्पष्ट नहीं होता; अतः वाक्यार्थ के मिलाकर जब एक ऐसे समूह ही रचना कर दी जाती है, जिसे अपने अर्थबोध में क्रियापद अथवा आख्यातपद ही प्रधान है, अन्य पद अर्थबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती है, तब गौण हैं। वाक्य बन जाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार वाक्य में इस मत की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि पदों की दृष्टि से सापेक्षता से और पद-समूह की दृष्टि से निरपेक्षता आख्यातपद अर्थात् क्रियापद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है या होती है, अत: वाक्य सापेक्ष पदों का निरपेक्ष समूह है। इसका तात्पर्य सापेक्ष होकर वाक्य है? यदि प्रथम विकल्प के आधार पर यह माना यह है कि वाक्य एक इकाई है जो सापेक्ष या साकांक्ष पदों से निर्मित जाये कि आख्यातपद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है तो यह होकर भी अपने आप में निरपेक्ष होती है। पद वाक्य के आवश्यक अंग मान्यता दो दृष्टिकोणों से युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि प्रथम तो अन्य हैं और वाक्य इनसे निर्मित एक निरपेक्ष इकाई है। वाक्यखण्डात्मक पदों से निपेक्ष होने पर आख्यातपद 'पद' ही रहेगा, 'वाक्य के स्वरूप इकाइयों से रचित एक अखण्ड रचना है। को प्राप्त नहीं होगा। दूसरे, यदि अन्य पदों से निरपेक्ष आख्यातपद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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