SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न १४५ नहीं दी जा सकती। कहे जाते हैं। जैसे, सैन्धव अच्छा होता है। यहाँ वक्ता का यह तात्पर्य स्पष्ट नहीं है कि सैन्धव से नमक अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा। ७. इच्छानुकूलिका अत: ऐसे कथनों को भी न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य। किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाषा है। तुम्हें यह ११. व्याकृता कार्य करना ही चाहिए, इस प्रकार के कार्य को मैं पसन्द करता हूँ। मुझे व्याकृता से जैन विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट झूठ बोलना पसन्द नहीं है। आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त नहीं होता हैं हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना ऐसा हो भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का एक रूप बताता है, सकता है। वे कथन, जो किसी तथ्य की परिभाषाएं हैं, इस कोटि में और उसे सत्यापनीय नहीं मानता है। आते हैं। आधुनिक भाववादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो वे पुनरुक्तियाँ हैं। जैन विचारकों ने इन्हें भी सत्य या असत्य की कोटि ८. अनभिग्रहीत में नहीं रखा है, क्योंकि इनका कोई अपना विधेय नहीं होता है या ये ऐसा कथन जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान कोई नवीन कथन नहीं करते हैं। करता है और न असहमति, अनभिग्रहीत कहलाता है। जैसे, 'जो पसन्द हो, वह कार्य करो", "जो तुम्हें सुखप्रद हो, वैसा करो" १२. अव्याकृता आदि। ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए इन्हें भी वह भाषा जो स्पष्ट रूप से कोई विधि निषेध नहीं करती असत्य-अमृषा कहा गया है। है, अव्याकृत भाषा है। यह भी स्पष्ट रूप से विधि-निषेध को अभिव्यक्त नहीं करती है। इसलिए यह भी सत्य-असत्य की कोटि में ९. अभिग्रहीत नहीं आती है। किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीत आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, कथन है। जैसे- 'हाँ, तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए', ऐसे कथन भी याचनीय, पृच्छनीय और प्रज्ञापनीय आदि कथनों को असत्य-अमृषा सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं। (असत्यापनीय) माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रकथनों को आज्ञापनीय मानकर उन्हें (असत्यापनीय) माना है जो जैन दर्शन की उपयुक्त १०. संदेहकारिणी व्याख्या के साथ संगतिपूर्ण है। जो कथन व्यर्थक हो या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो, संदेहात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy