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________________ जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न १४३ जानकार के लिए सत्य या असत्य हो सकता है, किन्तु हिन्दी भाषा के उल्लेख हुआ है। सत्य के इन दस भेदों का विवेचन इस प्रकार हैलिए न तो सत्य है और न असत्य। कथन की सत्यता और असत्यता १. जनपद सत्य-जिस देश में जो भाषा या शब्द व्यवहार तभी सम्भव होती है, जबकि श्रोता को कोई अर्थ बोध (वस्तु का मानस प्रचलित हो, उसी के द्वारा वस्तु तत्त्व का संकेत करना जनपद सत्य है। प्रतिबिम्ब) होता है, अतः पुनरुक्तियों और परिभाषाओं को छोड़कर एक जनपद या देश में प्रयुक्त होने वाला वही शब्द दूसरे देश में कोई भी भाषायी कथन निरपेक्ष रूप से न तो सत्य होता है और न असत्य हो जावेगा। बाईजी शब्द मालवा में माता के लिए प्रयुक्त होता असत्य। किसी भी कथन की सत्यता या असत्यता किसी सन्दर्भ विशेष है, जबकि उत्तर प्रदेश में वेश्या के लिए। अत: बाईजी से माता का में ही सम्भव होती है। अर्थबोध मालव के व्यक्ति के लिए सत्य होगा, किन्तु उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के लिए असत्य। जैन दर्शन में कथन की सत्यता का प्रश्न सम्मत-सत्य- वस्तु के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का एक जैन दार्शनिकों ने भाषा की सत्यता और असत्यता के प्रश्न ही अर्थ में प्रयोग करना सम्मत-सत्य है, जैसे- राजा, नृप, भूपति पर गंभीरता से विचार किया है। प्रज्ञापनासूत्र (पनवन्ना) में सर्वप्रथम आदि। यद्यपि ये व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थों के सूचक हैं। भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो भागों में विभाजित जनपद-सत्य एवं सम्मत-सत्यप्रयोग सिद्धान्त (Use Theory) से आधारित किया गया है। पर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय को पूर्णत: अर्थबोध से सूचक हैं। निर्वचन करने की सामर्थ्य है और अपर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने ३. स्थापना सत्य- शतरंज के खेल में प्रयुक्त विभिन्न विषय का पूर्णत: निर्वचन, सामर्थ्य नहीं है। अंशतः, सापेक्ष एवं अपूर्ण आकृतियों को राजा, वजीर आदि नामों से सम्बोधित करना स्थापना कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है। तुलनात्मक दृष्टि से पाखात्य सत्य है। यह संकेतीकरण का सूचक है। परम्परा की गणितीय भाषा टॉटोलाजी एवं परिभाषाएँ पर्याप्त या पूर्ण ४. नाम सत्य- गुण निरपेक्ष मात्र दिये गये नाम के आधार भाषा के समतुल्य मानी जा सकती है जबकि शेष भाषा व्यवहार पर वस्तु का सम्बोधन करना यह नाम सत्य है। एक गरीब व्यक्ति भी अपर्याप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक है। सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त नाम से "लक्ष्मीपति" कहा जा सकता है, उसे इस नाम से पुकारना भाषा की सत्य और असत्य ऐसी दो कोटियाँ स्थापित की। उनके सत्य है। यहाँ भी अर्थबोध संकेतीकरण के द्वारा ही होता है। अनुसार अपर्याप्त की दो कोटियाँ होती हैं- (१) सत्य-मृषा (मिश्र) ५. रूप सत्य- वेश के आधार पर व्यक्ति को उस नाम से और (२) असत्य-अमृषा। पुकारना रूप सत्य है, चाहे वस्तुत: वह वैसा न हो, जैसे- नाटक में सत्य भाषा- वे कथन, जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के राम का अभिनय करने वाले व्यक्ति को "राम" कहना या साधुवेशधारी प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं। कथन और तथ्य की संवादिता या को साधु कहना। अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है। जैन दार्शनिकों ने ६. प्रतीत्य सत्य- सापेक्षिक कथन अथवा प्रतीति को सत्य पाश्चात्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो मानकर चलना प्रतीत्य सत्य है। जैसे अनामिका बड़ी है, मोहन छोटा कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा, वह उतना ही अधिक है आदि। इसी प्रकार आधुनिक खगोल विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी स्थिर सत्य माना जायेगा। यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को है, यह कथन भी प्रतीत्य सत्य है, वस्तुतः सत्य नहीं। उसकी वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं। वे यह ७. व्यवहार- सत्य-व्यवहार में प्रचलित भाषायी प्रयोग भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों व्यवहार सत्य कहे जाते हैं, यद्यपि वस्तुत: वे असत्य होते हैं-घड़ा में सत्यता हो सकती है। जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न भरता है, बनारस आ गया, यह सड़क बम्बई जाती है। वस्तुत: घड़ा होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो नहीं पानी भरता है, बनारस नहीं आता, हम बनारस पहुँचते हैं। सड़क अपरोक्षानुभूति के विषय ही करते हैं। अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्थिर है वह नहीं जाती है, उस पर चलने वाला जाता है। स्तर हैं, जिनकी तथ्यात्मक संगति खोज पाना कठिन है। जैनदार्शनिकों ८. भाव सत्य- वर्तमान पर्याय में किसी एक गण की ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है। स्थानांग, प्रश्नव्याकरण, प्रमुखता के आधार पर वस्तु को वैसा कहना भाव सत्य है। जैसे-अंगर प्रज्ञापना, मूलाधार और भगवती आराधना में सत्य के दस भेद मीठे हैं, यद्यपि उनमें खट्टापन भी रहा हआ है। बताये गये हैं:- १. जनपद सत्य, २. सम्मत सत्य, ३. स्थापना ९. योग सत्य- वस्तु के संयोग के आधार पर उसे उस नाम सत्य, ४. नाम सत्य, ५. रूप सत्य, ६. प्रतीत्य सत्य, ७. व्यवहार से पुकारना योग सत्य है; जैसे- दण्ड धारण करने वाले को दण्डी सत्य, ८. भाव सत्य, ९. योग सत्य, १० उपमा सत्य। अकलंक ने कहना या जिस घड़े में घी रखा जाता है उसे घी का घड़ा कहना। सम्मत सत्य, भाव सत्य और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना १०. उपमा सत्य- यद्यपि चन्द्रमा और मुख दो भिन्न तथ्य सत्य, देश सत्य और काल सत्य का उल्लेख किया है। मूलाचार हैं और उनमें समानता भी नहीं है, फिर भी उपमा में ऐसे प्रयोग होते और भगवतीआराधना में योग सत्य के स्थान पर सम्भावना सत्य का हैं- जैसे चन्द्रमुखी, मृगनयनी आदि। भाषा में इन्हें सत्य माना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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