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________________ १४२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कथन की सत्यता का प्रश्न सामर्थ्य की सीमितता को भी हमें ध्यान में रखना होगा। साथ ही हमें यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि मानव अपनी अनुभूतियों और यह भी ध्यान रखना होगा कि भाषा, तथ्य नहीं, तथ्य की संकेतक मात्र भावनाओं को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। भाषा शब्द है। उसकी इस सांकेतिकता के सन्दर्भ में ही उसकी सत्यता-असत्यता प्रतीकों और सार्थक ध्वनि संकेतों का एक सुव्यवस्थित रूप है। वस्तुतः का विचार किया जा सकता है। जो भाषा अपने कथ्य को जितना हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के अधिक स्पष्ट रूप से संकेतित कर सकती है वह उतनी ही अधिक सत्य लिए शब्द प्रतीक बना लिये है। इन्हीं शब्द प्रतीकों एवं ध्वनि संकेतों के निकट पहुँचती है। भाषा की सत्यता और असत्यता उसकी संकेत के माध्यम से हम अपने विचारों, अनुभूतियों और भावनाओं का शक्ति के साथ जुड़ी हुई है। शब्द-अर्थ (वस्तु या तथ्य) के संकेतक हैं सम्प्रेषण करते हैं। वे उसके हू-ब-हू (यथार्थ) प्रतिबिम्ब नहीं हैं। शब्द में मात्र यह सामर्थ्य यहाँ मूल प्रश्न यह है कि हमारी इस भाषायी अभिव्यक्ति को रही हुई है कि वे श्रोता के मनस् पर वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब उपस्थित हम किस सीमा तक सत्यता का अनुसांगिक मान सकते हैं। आधुनिक कर देते हैं। अत: शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब तथ्य का पाश्चात्य दर्शन में भाषा और उसकी सत्यता के प्रश्न को लेकर एक पूरा संवादी है, उससे अनुरूपता रखता है तो वह कथन सत्य माना जाता दार्शनिक सम्प्रदाय ही बन गया है। भाषा और सत्य का सम्बन्ध आज है। यद्यपि, यहाँ भी अनुरूपता वर्तमान मानस प्रतिबिम्ब और पूर्ववर्ती के युग का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न है किसी कथन की सत्यता या परवर्ती या परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब में ही होती है। जब किसी मानस या असत्यता को निर्धारित करने का आधार आज सत्यापनका सिद्धान्त प्रतिबिम्ब का सत्यापन परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान हैं। समकालीन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि जिन कथनों का से होता है तो उसे परत: प्रामाण्य कहा जाता है और जब उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है, वे ही कथन सत्य या असत्य हो सकते सत्यापन पूर्ववर्ती मानस प्रतिबिम्ब से होता है तो स्वतः प्रामाण्य कहा हैं। शेष कथनों का सत्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ए० जे० एयर ने जाता है; क्योंकि अनुरूपता या विपरीतता मानस प्रतिबिम्बों में ही हो अपनी पुस्तक में इस समस्या को उठाया है। इस सन्दर्भ में सबसे पहले सकती हैं। यद्यपि दोनों ही प्रकार के मानस प्रतिबिम्बों का आधार या हमें इस बात का विचार कर लेना होगा कि कथन के सत्यापन से हमारा उनकी उत्पत्ति ज्ञेय (प्रमेय) से होती है। यही कारण था कि वादिदेवसूरि क्या तात्पर्य है। कोई भी कथन जब इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या ने प्रामाण्य (सत्यता) और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति को परत: माना अपुष्ट किया जा सकता है, तब ही वह सत्यापनीय कहलाता है। जिन था। प्रामण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति को परत: करने का तात्पर्य यही कथनों को हम इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या खण्डित नहीं कर है- इन मानस प्रतिबिम्बों का उत्पादक तत्त्व इनसे भिन्न हैं। कुछ सकते, वे असत्यापनीय होते हैं। किन्तु, इन दोनों प्रकार के कथनों के विचारक यह भी मानते हैं कि कथन के सत्यापन या सत्यता के निश्चय बीच कुछ ऐसे भी कथन होते हैं जो न सत्यापनीय होते हैं और में शब्द द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब और तथ्य द्वारा उत्पन्न मानस असत्यापनीय। उदाहरण के लिए मंगल ग्रह में जीव के पाये जाने की प्रतिबिम्ब में तुलना होती है। यद्यपि एकांत वस्तुवादी दृष्टिकोण यह संभावना है। यद्यपि यह कथन वर्तमान में सत्यापनीय नहीं है, किन्तु मानेगा कि ज्ञान और कथन की सत्यता का निर्धारण मानस प्रतिबिम्ब यह संभव है कि इसे भविष्य में पुष्ट या खण्डित किया जा सकता है। की तथ्य या वस्तु से अनुरूपता के आधार पर होता है। यहाँ यह स्मरण अत: वर्तमान में यह न तो सत्यापनीय है और न तो असत्यापनीय। रखना होगा कि यह अनुरूपता भी वस्तुतः मानस प्रतिबिम्ब और वस्तु किन्तु, संभावना की दृष्टि से इसे सत्यापनीय माना जा सकता है। के बीच न होकर शब्द निर्मित मानस प्रतिबिम्ब और परवर्ती इन्द्रिय भगवती-आराधना में सत्य का एक रूप संभावना सत्य माना गया है। अनुभव के द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब के बीच होती है, यह तुलना वस्तुत: कौन-सा कथन सत्य है, इसका निर्णय इसी बात पर . दो मानसिक प्रतिबिम्बों के बीच है, न कि तथ्य और कथन के बीच। निर्भर करता है कि उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है या नहीं है। तथ्य और कथन दो भिन्न स्थितियाँ हैं। उनमें कोई तुलना या सत्यापन वस्तुत: जिसे हम सत्यापन या मिथ्यापन कहते हैं, वह भी उस सम्भव नहीं है। शब्द वस्तु के समग्र प्रतिनिधि नहीं, संकेतक हैं और अभिकथन और उसमें वर्णित तथ्य की संवादिता या अनुरूपता पर उनकी यह संकेत सामर्थ्य भी वस्तुत: उनके भाषायी प्रयोग (Convenनिर्भर करता है, जिसे जैन परम्परा में परतः प्रामाण्य कहा जाता है। tion) पर निर्भर करती है। हम वस्तु को कोई नाम दे देते हैं और प्रयोग सामान्यतया यह माना जाता है कि कोई भी कथन कथित तथ्य का के द्वारा उस "नाम" में एक ऐसी सामर्थ्य विकसित हो जाती है कि उस संवादी (अनुरूप) होगा तो वह सत्य होगा और विसंवादी (विपरीत) “नाम'' में श्रवण या पठन से हमारे मानस में एक प्रतिबिम्ब खड़ा हो होगा तो वह असत्य होगा। यद्यपि, वह भी स्पष्ट है कि कोई भी कथन जाता है। यदि उस शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न वह प्रतिबिम्ब हमारे परवर्ती किसी तथ्य की समग्र अभिव्यक्ति नहीं दे पाता है। जैन दार्शनिकों ने इन्द्रियानुभव से अनुरूपता रखता है, हम उस कथन को -"सत्य" स्पष्ट रूप से यह माना था कि प्रत्येक कथन वस्तु-तत्त्व के सम्बन्ध में कहते हैं। भाषा में अर्थ बोध की सामर्थ्य प्रयोगों के आधार पर विकसित हमें आंशिक जानकारी ही प्रस्तुत करता है। अत: प्रत्येक कथन वस्तु के होती है। वस्तुत: कोई शब्द या कथन अपने आप में न तो सत्य होता सन्दर्भ में आंशिक सत्य का ही प्रतिपादक होगा।यहाँ भाषा की अभिव्यक्ति, है और न असत्य This is a table- यह कथन अंग्रेजी भाषा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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