SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण ११७ महावीर के आत्मवाद की औचित्यता है। यही उनका वैशियष्टय है। सन्दर्भ १. मज्झिमनिकाय, २/३/७ २. संयुक्तनिकाय, ३/१/१ ३. (अ) सूत्रकृतांग, प्रथम अध्ययन, (ब) भगवती १/९/५, शतक १५ (स) उत्तराध्ययन १४/१८ ये प्राचीनतम माने जाने वाले उपनिषद् महावीर के समकालीन या उनसे कुछ परवर्ती ही हैं, क्योंकि महावीर के समकालीन "अजातशत्रु" का नाम निर्देश इनमें उपलब्ध है। बृहदा.२/ १५-१७ ५. गीता ३/२७/, २/२१, ८/१७ ६. अंगुत्तरनिकाय का छक्क निपातसुत्त तथा भगवान् बुद्ध, धर्मानन्द कौशम्बी, पृ. १८ ७. गोशालक की छ: अभिजातियाँ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं हैं - १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. हरित, ५. शुक्ल, ६. परमशुक्ल, तुलनीय, जैनों का लेश्या-सिद्धान्त - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) कपोत, (४) तेजो, (५) पद्य, (६) शुक्ल (विचारणीय तथ्य यह है कि गोशालक के अनुसार निर्ग्रन्थ साधु तीसरे लोहित नामक वर्ग में हैं जबकि जैन धारणा भी उसे तेजोलेश्या (लोहित) वर्ग का साधक मानती है) ८. छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/३ बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/६/१ कठोपनिषद्, २/४/१२ ९. गीता, २/१८-२०. जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण आत्मा या जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा (२) जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही किसी विचारशील जाता है। जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है। सत्ता अर्थात् जीव की सत्ता को सिद्ध कर देता है। देवदत्त जैसा सचेतन इसीलिए इसे चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुषार प्रकारों की चर्चा आगमों में मिलती है-निराकार उपयोग और साकार (३) शरीर स्थित जो यह सोचता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही तो उपयोग। इन दोनों को क्रमश: दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है। यदि आत्मा उपयोग, वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण, दर्शन ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ या नहीं? कहा जाता है और साकार उपयोग, को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है। संशय के लिए किसी ऐसे ग्रहण करने के कारण, ज्ञान कहा जाता है। जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन तत्त्व के अस्तित्व की अनिवार्यता है जो उस विचार का आधार हो। दर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न बिना अधिष्ठान के कोई विचार या चिन्तन सम्भव नहीं हो सकता। मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र संशय का अधिष्ठान कोई न कोई अवश्य होना चाहिए। महावीर गौतम सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार संक्षेप में से कहते हैं- हे गौतम! यदि कोई संशयकर्ता ही नहीं है तो 'मै हूँ' या जीव अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य है। __ 'नहीं हूँ' यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है? तुम स्वयं अपने ही विषय जीव को जैन दर्शन में आत्मा भी कहा गया है। अत: यहाँ में सन्देह कैसे कर सकते हो, फिर किसमें संशय न होगा? क्योंकि आत्मा के सम्बन्ध में कुछ मौलिक प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है- संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं, वे सब आत्मा का अस्तित्व आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व जैन दर्शन में जीव या आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य अवश्य स्वीकारना पड़ता है। वस्तुत: जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, माना गया है। जहाँ तक हमारे आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न है आत्मा उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैन दर्शन में आत्मा स्वयंसिद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते आध्यात्मिक विकास की पहली शर्त आत्म-विश्वास है। विशेषावश्यकभाष्य हैं सुख-दुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की के गणधरवाद में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न आवश्यकता नहीं। ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं। आचारांगसूत्र तर्क प्रस्तुत किये गये हैं में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है।४ । (१) जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते असद् वस्तु की कोई सार्थक संज्ञा ही नहीं बनती।' है कि जो निरसन कर रहा है वही तो उसका स्वरूप है।५ आत्मा के हैं सुख-दुःख सब आत्मपूर्वक वही आत्मा है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy