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________________ ११६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कर्तव्य करने का उपदेश दिया गया था। वर्तमान युग में ब्रेडले ने की दार्शनिक एवं नैतिक कमजोरियों को भी जानते रहे होंगे। अत: (Mystation and its duties) समाज में अपनी स्थिति के अनुसार उन्होंने अपने आत्मवाद को इनमें से किसी भी सिद्धान्त के साथ नहीं कर्तव्य करने के नैतिक सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, उसी प्रकार वह बाँधा। उनका आत्मवाद इनमें से किसी भी एक वर्ग के अन्तर्गत नहीं छ: अभिजातियों (वर्गों) को उनकी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने आता, वरन् उनका आत्मवाद इन सबका एक सुन्दर समन्वय है। का उपदेश देता होगा और यह मानता होगा कि आत्मा अपनी आचार्य हेमचन्द्र ने अपने वीतरागस्तोत्र में एकांत नित्य अभिजातियों के कर्तव्य का पालन करते हुए स्वत: विकास की क्रमिक आत्मवाद और एकान्त अनित्य आत्मवाद के दोषों का दिग्दर्शन कराते गति से आगे बढ़ता रहता है। हुए बताया है कि वीतराग का दर्शन इन दोनों के दोषों से मुक्त है। पारमार्थिक दृष्टि से या तार्किक दृष्टि से नियतिवादी विचारणा विस्तारभय से यहाँ नित्य आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद तथा का चाहे कुछ मूल्य रहा हो, लेकिन नैतिक विवेचना में नियतिवाद कूटस्थ आत्मवाद और परिणामी आत्मवाद के दोषों की विवेचना में न अधिक सफल नहीं हो पाया। नैतिक विवेचना में इच्छा-स्वातन्त्र्य पड़कर हमें केवल यही देखना है कि महावीर ने इन विभिन्न आत्मवादों (Free-will) की धारणा आवश्यक है, जबकि नियतिवाद में उसका का किस रूप से समन्वय किया हैकोई स्थान नहीं रहता है। फिर दार्शनिक दृष्टि से भी नियतिवादी तथा (१) नित्यता- आत्मा अपने अस्तित्व की दृष्टि से सदैव रहता है स्वत: विकासवादी धारणायें निर्दोष हों, ऐसी बात भी नहीं है। अर्थात् नित्य है। दूसरे शब्दों में आत्म तत्त्व रूप से नित्य है, शाश्वत है। नित्यकूटस्थ-सूक्ष्म-आत्मवाद (२) अनित्यता- आत्मा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। आत्मा के बुद्ध का समकालीन एक विचारक पकुधकच्चायन आत्मा को एक समय में जो पर्याय रहते हैं, वे दूसरे समय में नहीं रहते हैं। आत्मा नित्य और कूटस्थ (अक्रिय) मानने के साथ ही उसे सूक्ष्म मानता था। की अनित्यता व्यावहारिक दृष्टि से है, बद्धात्मा में पर्याय परिवर्तन के 'ब्रह्मजालसुत्त' के अनुसार उसका दृष्टिकोण इस प्रकार का था- कारण अनित्यत्व का गुण भी रहता है। सात पदार्थ किसी के बने हुए नहीं हैं (नित्य हैं), वे तो (३) कूटस्थता- स्वलक्षण की दृष्टि से आत्मा कर्ता या भोक्ता अवध्य कूटस्थ- अचल हैं।- जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का अथवा परिणमनशील नहीं है। सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। बस इतना ही (४) परिणामीपन या कर्तृत्व- सभी बद्धात्माएँ कर्मों की कर्ता और समझना चाहिये कि सात पदार्थों के बीच अवकाश में उसका शस्त्र घुस भोक्ता हैं। यह एक आकस्मिक गुण है, जो कर्म पुद्गलों के संयोग से गया है। उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य और कूटस्थ (५-६) सूक्ष्मता तथा विभुता- आत्मा संकोच एवं विकासशील है। तो थी ही साथ ही सूक्ष्म और अछेद्य भी थी। पकुधकच्चायन की इस आत्म-प्रदेश घनीभूत होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि आगमिक दृष्टि धारणा के तत्त्व उपनिषदों तथा गीता में भी पाये जाते हैं। उपनिषदों से एक सूचिकाग्रभाग पर असंख्य आत्मा सशरीर निवास करती है। में आत्मा को जो, सरसों या चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है तथा तलवार की सूक्ष्म तीक्ष्ण धार भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के शरीर तक गीता में उसे अछेद्य, अवध्य कहा गया है। को नष्ट नहीं कर सकती। विभुता की दृष्टि से एक ही आत्मा के प्रदेश सूक्ष्म आत्मवाद की धारणा भी दार्शनिक दृष्टि से अनेक यदि प्रसारित हों तो समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं। दोषों से पूर्ण है। अत: बाद में इस धारणा में काफी परिष्कार हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर का आत्मवाद तत्कालीन विभिन्न आत्मवादों का सुन्दर समन्वय है। यही नहीं वरन् वह समन्वय महावीर का आत्मवाद इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रकार की आत्मवादी धारायें यदि उपर्युक्त आत्मवादों का तार्किक वर्गीकरण किया जाये अपने-अपने दोषों से मुक्त हो-होकर यहाँ आकर मिल जाती हैं। तो हम उनके छ: वर्ग बना सकते हैं हेमचन्द्र इस समन्वय की औचित्यता को एक सुन्दर उदाहरण (१) अनित्य आत्मवाद या उच्छेद आत्मवाद द्वारा प्रस्तुत करते हैं(२) नित्य आत्मवाद या शाश्वत आत्मवाद गुडो हि कफ हेतुःस्यात् नागरं पित्तकारणम । (३) कूटस्थ आत्मवाद या निष्क्रिय आत्मवाद एवं नियतिवाद ब्दयात्मनि न दोषोस्ति गुडनागरभेषजे ।। (४) परिणामी आत्मवाद या कर्ता आत्मवाद या पुरुषार्थवाद' जिस प्रकार गुड़ कफ जनक और सोंठ पित्त जनक है लेकिन (५) सूक्ष्म आत्मवाद दोनों के समन्वय में यह दोष नहीं रहते।। (६) विभु आत्मवाद (यही बाद में उपनिषदों का सर्वात्मवाद या इसी प्रकार विभिन्न आत्मवाद पृथक्-पृथक् रूप से नैतिक ब्रह्मवाद बना है) अथवा दार्शनिक दोषों से ग्रस्त है, लेकिन महावीर द्वारा किये गये इस महावीर अनेकान्तवादी थे, साथ ही वे इन विभिन्न आत्मवादों समन्वय में वे सभी अपने-अपने दोषों से मुक्त हो जाते हैं। यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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