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________________ १०८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जीव अनन्त-द्रव्य है क्योंकि जीव अनन्त हैं। पुनः प्रत्येक जीव के मौलिक और प्राचीन अवधारणा थी। उसे जब वैशेषिक दर्शन की द्रव्य असंख्य प्रदेश हैं। प्रत्येक जीव में अपने आत्म-प्रदेशों से सम्पूर्ण लोक की अवधारणा के साथ स्वीकृत किया गया, तो प्रारम्भ में तो पाँच को व्याप्त करने की क्षमता है। जीव द्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा भी अस्तिकायों को ही द्रव्य माना गया किन्तु जब काल को एक स्वतन्त्र पुद्गल-द्रव्य के प्रदेश अनन्त गुणा अधिक हैं क्योंकि प्रत्येक जीव के द्रव्य के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई तो द्रव्यों की संख्या पाँच से साथ अनन्त कर्म-पुद्गल संयोजित हैं। यद्यपि काल की प्रदेश संख्या बढ़कर छह हो गई। चूँकि आगमों में कहीं भी अस्तिकाय वर्ग के पुद्गल की अपेक्षा भी अनन्त गुणी मानी गयी, क्योंकि प्रत्येक जीव और अन्तर्गत काल की गणना नहीं थी अत: काल को अनस्तिकाय वर्ग में पुद्गल-द्रव्य की वर्तमान, अनादि भूत और अनन्त भविष्य की दृष्टि से रखा गया और यह मान लिया गया कि काल जीव और पुद्गल के अनन्त पर्यायें होती हैं अत: काल की प्रदेश-संख्या सर्वाधिक होनी परिवर्तनों का निमित्त है और कालाणु तिर्यक् प्रदेश प्रचयत्व से रहित चाहिये फिर भी कालाणुओं का समावेश पुद्गल-द्रव्य के प्रदेशों में होने हैं अत: वह अनस्तिकाय है। इस प्रकार द्रव्यों के वर्गीकरण में सर्वप्रथम की वजह से अस्तिकाय में पुद्गल-द्रव्य के प्रदेशों की संख्या ही दो प्रकार के वर्ग बने- १. अस्तिकाय द्रव्य और २. अनस्तिकाय द्रव्य। सर्वाधिक मानी गई है। अस्तिकाय द्रव्यों के वर्ग के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और इस समग्र विवेचन से यह ज्ञात होता है कि अस्तिकाय की पुद्गल इन पाँच द्रव्यों को रखा गया और अनस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत अवधारणा और द्रव्य की अवधारणा के वर्ण्य-विषय एक ही हैं। काल को रखा गया। आगे चलकर द्रव्यों के वर्गीकरण का आधार चेतना-लक्षण और मूर्तता-लक्षण को भी माना गया। चेतना-लक्षण की षद्रव्य दृष्टि से जीव को चेतन द्रव्य और शेष पाँच-धर्म, अधर्म, आकाश, यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रारम्भ में जैन दर्शन में पञ्च पुद्गल और काल को अचेतन द्रव्य कहा गया। इसी प्रकार मूर्त्तता-लक्षण अस्तिकाय की अवधारणा ही थी। अपने इतिहास की दृष्टि से यह की अपेक्षा से पुद्गल को मूर्त द्रव्य और शेष पाँच-जीव, धर्म, अधर्म, अवधारणा पार्श्वयुगीन थी। 'इसिभासियाई' के पार्श्व नामक इकतीसवें आकाश और काल को अमूर्त-द्रव्य माना गया। इस प्रकार द्रव्यों के अध्याय में पार्श्व के जगत् सम्बन्धी दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण करते हुए वर्गीकरण की तीन शैलियाँ अस्तित्व में आई, जिन्हें हम निम्न सारणियों विश्व के मूल घटकों के रूप में पंचास्तिकायों का उल्लेख हुआ है। व आधार पर स्पष्टतया समझ सकते हैंभगवतीसूत्र में महावीर ने पार्श्व को इसी अवधारणा का पोषण करते हुए द्रव्यों के उपर्युक्त वर्गीकरण के पश्चात् इन षद्रव्यों के यह माना था कि लोक पंचास्तिकायरूप है। यह स्पष्ट है कि प्राचीन स्वरूप और लक्षण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। काल में जैन दर्शन में काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना गया था। उसे जीव एवं पुद्गल की पर्याय के रूप में ही व्याख्यायित किया जाता था। जीव द्रव्य प्राचीन स्तर के आगमों में उत्तराध्ययन ही ऐसा आगम है जहाँ काल को जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है। सर्वप्रथम एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यह स्पष्ट जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है। इसीलिए इसे है कि जैन परम्परा में उमास्वाति के काल तक, काल स्वतन्त्र द्रव्य है चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा या नहीं-इस प्रश्न को लेकर मतभेद था। इस प्रकार जैन आचार्यों में ही आगमों में मिलती है- निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन तृतीय-चतुर्थ शताब्दी तक काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में दोनों को क्रमश: दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार उपयोग को दो प्रकार की विचारधाराएँ चल रही थीं। कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण दर्शन कहा जाता है और द्रव्य नहीं मानते थे। तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ 'कालश्चेत्येके' का साकार उपयोग को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण निर्देश करता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि कुछ विचारक काल ज्ञान कहा जाता है। जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन दर्शन की विशेषता यह को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानने लगे थे। लगता है कि लगभग पाँचवीं है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य शताब्दी में आकर काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लिया मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व गया था और यही कारण था कि सर्वार्थसिद्धिकार ने 'कालश्चेत्येके' सूत्र में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार संक्षेप में जीव अस्तिकाय, के स्थान पर 'कालश्च' इस सूत्र को मान्य किया था। जब श्वेताम्बर और चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य हैं। दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मान लिया गया, तो अस्तिकाय और द्रव्य शब्दों के वाच्य विषयों में एक अन्तर धर्म द्रव्य आ गया। जहाँ अस्तिकाय के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश धर्म द्रव्य की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें यह स्पष्ट और पुद्गल ये पाँच ही द्रव्य माने गये, वहाँ द्रव्य की अवधारणा के रूप से जान लेना चाहिए कि यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ वह नहीं है जिसे अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ये षद्रव्य सामान्यतया ग्रहण किया जाता है। यहाँ 'धर्म' शब्द न तो स्वभाव का माने गये। वस्तुतः अस्तिकाय की अवधारणा जैन परम्परा की अपनी वाचक है, न कर्तव्य का और न साधना या उपासना के विशेष प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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