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________________ जैनदर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा दो प्रकार का माना गया है- ऊर्ध्व प्रचय और तिर्यक् प्रचय | आधुनिक शब्दावली में इन्हें क्रमशः ऊर्ध्व एकरेखीय विस्तार (Longitudinal Extension) और बहुआयामी विस्तार (Multi-dimensional Extension) कहा जा सकता है। अस्तिकाय की अवधारणा में प्रचय या विस्तार को जिस अर्थ में ग्रहण किया जाता है वह बहुआयामी विस्तार है न कि ऊर्ध्व एकरेखीय विस्तार जैन दार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है, जिनका तिर्यक् प्रचय या बहुआयामी विस्तार है। काल में केवल ऊर्ध्वं प्रचय या एक आयामी विस्तार है, अतः उसे अस्तिकाय नहीं माना गया है। यद्यपि प्रो० जी०आर० जैन ने काल को एक-आयामी (Mono-dimensional) और शेष को द्वि-आयामी (Twodimensional) माना है किन्तु मेरो दृष्टि में शेष द्रव्य त्रि-आयामी हैं, क्योंकि वे स्कंधरूप है, अतः उनमें लम्बाई चौड़ाई और मोटाई के रूप में तीन आयाम होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि जिन द्रव्यों में त्रि-आयामी विस्तार है, वे अस्तिकाय द्रव्य है। > यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि काल भी लोकव्यापी है फिर उसे अस्तिकाय क्यों नहीं माना गया? इसका प्रत्युत्तर यह है कि यद्यपि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर कालाणु स्थित हैं, किन्तु प्रत्येक कालाणु (Time grains) अपने आप में एक स्वतंत्र द्रव्य हैं, वे परस्पर निरपेक्ष हैं, स्निग्ध एवं रुक्ष गुण के अभाव के कारण उनमें बंध नहीं होता है, अर्थात् उनके स्कन्ध नहीं बनते हैं। स्कन्ध के अभाव में उनमें प्रदेश प्रचयत्व की कल्पना संभव नहीं है, अतः वे अस्तिकाय द्रव्य नहीं हैं। काल-द्रव्य को अस्तिकाय इसलिये नहीं कहा गया कि उसमें स्वरूपतः और उपचार दोनों ही प्रकार के प्रदेश प्रचय की कल्पना का अभाव है। यद्यपि पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने पुद्गल (Matter) का गुण विस्तार (Extension) माना है किन्तु जैन दर्शन की विशेषता तो यह है कि यह आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश जैसे अमूर्त द्रव्यों में भी विस्तार की अवधारणा को स्वीकार करता है। इनके विस्तारवान् (कायत्व से युक्त) होने का अर्थ है वे दिक् (Space) में प्रसारित या व्याप्त हैं। धर्म एवं अधर्म तो एक महास्कन्ध के रूप में सम्पूर्ण लोकाकाश के सीमित असंख्य प्रदेशी क्षेत्र में प्रसारित या व्याप्त है। आकाश तो स्वतः ही अनन्त प्रदेश होकर लोक एवं अलोक में विस्तारित है, अतः इसमें भी कायत्व की अवधारणा सम्भव है। जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है देकार्त उसमें 'विस्तार' को स्वीकार नहीं करता है, किन्तु जैन दर्शन उसे विस्तारयुक्त मानता है। क्योंकि आत्मा जिस शरीर को अपना आवास बनाता है उसमें वह समग्रतः व्याप्त हो जाता है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि शरीर के अमुक भाग में आत्मा है और अमुक भाग में नहीं है, वह अपने चेतना लक्षण से सम्पूर्ण शरीर को व्याप्त करता है। अतः उसमें विस्तार है, वह अस्तिकाय है। हमें इस भ्रान्ति को निकाल देना चाहिये कि केवल मूर्त्त द्रव्य का विस्तार होता है और अमूर्त का नहीं आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अमूर्त द्रव्य का भी विस्तार होता है। वस्तुतः अमूर्त द्रव्य के विस्तार की Jain Education International १०७ कल्पना उसके लक्षणों या कार्यों (Functions) के आधार पर की जा सकती है, जैसे धर्म द्रव्य का कार्य गति को सम्भव बनाना है, वह गति का माध्यम माना गया है। अतः जहाँ जहाँ गति है या गति सम्भव है, वहाँ-वहाँ धर्म-द्रव्य की उपस्थिति एवं विस्तार है यह माना जा सकता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी द्रव्य को अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि वह द्रव्य दिक् में प्रसारित है या प्रसारण की क्षमता से युक्त है। विस्तार या प्रसार (Extension) ही कायत्व है क्योंकि विस्तार या प्रसार की उपस्थिति में ही प्रदेश प्रचयत्व तथा सावयवता की सिद्धि होती है। अतः जिन द्रव्यों में विस्तार या प्रसार का लक्षण है वे अस्तिकाय हैं। अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता? यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का आरोपण संभव नहीं है क्योंकि काल का प्रत्येक घटक अपनी स्वतंत्र और पृथक् सत्ता रखता है। जैन दर्शन की पारम्परिक परिभाषा में कालाणुओं में स्निग्ध एवं रुक्ष गुण के अभाव होने से उनका कोई स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है। यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर ली जाय तो पर्याय- समय की सिद्धि नहीं होती है। पुनः काल के वर्तना लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही है और वर्तमान अत्यन्त सूक्ष्म है। अतः काल में विस्तार ( प्रदेश प्रचयत्व ) नहीं माना जा सकता और इसलिए वह अस्तिकाय भी नहीं है। अस्तिकायों के प्रदेश प्रचयत्व का अल्पबहुत्व - ज्ञातव्य है कि सभी अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार क्षेत्र समान नहीं है, उसमें भिन्नताएँ हैं। जहाँ आकाश का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक दोनों हैं वहाँ धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य केवल लोक तक ही सीमित हैं। पुट्रल के प्रत्येक स्कन्ध और प्रत्येक जीव का विस्तार क्षेत्र भी भिन्न भिन्न है पुट्रल पिण्डों का विस्तार क्षेत्र उनके आकार पर निर्भर करता है, जबकि प्रत्येक जीवात्मा का विस्तार क्षेत्र उसके द्वारा गृहीत शरीर के आकार पर निर्भर करता है। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय होते हुए भी उनका विस्तार क्षेत्र या कायत्व समान नहीं है। जैन दर्शनिकों ने उनमें प्रदेश दृष्टि से भिन्नता स्पष्ट की है। भगवतीसूत्र में बताया गया है कि धर्म द्रव्य और अधर्म के प्रदेश अन्य द्रव्यों की अपेक्षा सबसे कम हैं। वे लोकाकाश तक (Within the limits of universe) सीमित हैं और असंख्य प्रदेशी हैं। आकाश की प्रदेश संख्या इन दोनों की अपेक्षा अनन्त गुणा अधिक मानी गयी है आकाश अनन्त प्रदेशी हैं क्योंकि वह ससोम लोक (Finite universe) तक सीमित नहीं है। उसका विस्तार अलोक में भी है। पुनः आकाश की अपेक्षा जीव द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं क्योंकि प्रथम तो जहाँ धर्म-अधर्म और आकाश का एकल-द्रव्य है वहाँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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