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________________ मूलाचार : एक विवेचन ९३ समिति,३ गुप्ति आदि का जो विवेचन उपलब्ध होता है वह भी में जिस आराधना का निर्देश किया गया है, वह भगवती आराधना उत्तराध्ययन के और दशवैकालिक में किंचित् भेद के साथ उपलब्ध ही है। मूलाचार भी उसी यापनीय परम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है होता है। इसी प्रकार मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार की ८३ गाथाएँ क्योंकि मूलाचार के रचनाकार ने सर्वप्रथम उसी ग्रन्थ का नामोल्लेख हैं। इनमें भी अधिकांश गाथाएँ श्वेताम्बर परम्परा के पिण्डनियुक्ति नामक किया है। दिगम्बर परम्परा में आराधना नाम का कोई ग्रन्थ नहीं है। ग्रन्थ में यथावत् रूप में उपलब्ध होती हैं। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में मरणविभक्ति नाम का जो ग्रन्थ है उसकी इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार की अधिकांश सामग्री श्वेताम्बर रचना जिन आठ प्राचीन श्रृत ग्रन्थों के आधार पर मानी जाती है उनमें परम्परा के उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति, आउरपच्चक्खाण मरणविभक्ति, मरणविशोधि, मरणसमाधि, संलेखनाश्रुत, भत्तपरिज्ञा, महापच्चक्खाण, आवश्यकनियुक्ति, चन्द्रवेध्यक आदि श्वेताम्बर परम्परा आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और आराधना हैं। प्रस्तुत गाथा में के मान्य उपर्युक्त ग्रन्थों से संकलित हैं। आश्चर्य तो यह लगता है कि मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान और आराधना ऐसे तीन स्वतन्त्र ग्रन्थों के हमारी दिगम्बर परम्परा के विद्वान् मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से उल्लेख हैं। यह सम्भव है कि मूलाचार का आराधना से तात्पर्य इसी मात्र २१ गाथाएँ समान रूप से उपलब्ध होने पर इसे कुन्दकुन्द की प्राचीन आराधना से रहा होगा। यह आराधना भगवती आराधना की कृति सिद्ध करने का साहस करते हैं और जिस परम्परा के ग्रन्थों से रचना का भी आधार रहा है। यदि हम आराधना का तात्पर्य भगवती इसकी आधी से अधिक गाथाएँ समान रूप से मिलती हैं उसके साथ आराधना लेते हैं तो हमें इतना निश्चित रूप से स्वीकार करना होगा इसकी निकटता को दृष्टि से ओझल कर देते हैं। मूलाचार की रचना कि मूलाचार का रचनाकाल भगवती आराधना की रचना के बाद का उसी परम्परा में सम्भव हो सकती है जिस परम्परा में उत्तराध्ययन, है और दोनों ग्रन्थों के आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर यह निर्णय दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, महापचक्खाण, करना होगा कि इनमें से कौन प्राचीन है। चूंकि यह एक स्वतन्त्र निबन्ध आउरपचक्खाण आदि ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा रही का विषय होगा इसलिए इसकी अधिक गहराई में नहीं जाना चाहता, है। वर्तमान की खोजों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यापनीय परम्परा किन्तु इतना अवश्य उल्लेख करूँगा कि यदि भगवती आराधना की से इन ग्रन्थों का अध्ययन होता था। इसी प्रकार यापनीय परम्परा में रचना मूलाचार से परवर्ती है तो मूलाचार में लिखित यह आराधना, अपराजितसूरि ने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक पर टीकाएं लिखकर मरणसमाधि की अंगीभूत आराधना ही है। दोनों का नाम साम्य भी इसी बात की पुष्टि की है कि इसका अध्ययन और अध्यापन उनकी इस धारणा को पुष्ट करता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी परम्परा में प्रचलित था। जो परम्परा आगम ग्रन्थों का सर्वथा लोप मानती समय आराधना स्वतन्त्र ग्रन्थ था, जो आज मरणविभक्ति में समाहित है उस परम्परा में मूलाचार जैसे ग्रन्थ की रचना सम्भव नहीं प्रतीत हो गया है। होती। यह स्पष्ट है कि जहाँ दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर अचेल श्वेताम्बर परम्परा में आगम ग्रन्थों की प्राचीनतम व्याख्याओं के परम्परा आगमों के विच्छेद की बात कर रही थी, वहीं उत्तरभारत में रूप में नियुक्तियाँ लिखी गईं। श्वेताम्बर परम्परा में दस नियुक्तियाँ सुप्रसिद्ध विकसित होकर दक्षिण की ओर जाने वाली इस यापनीय-परम्परा में हैं। नियुक्ति सम्भवत: द्वितीय भद्रबाहु की रचना मानी जाती है, किन्तु आगमों का अध्ययन बराबर चल रहा था। अत: इससे यही सिद्ध होता कुछ नियुक्तियाँ उससे भी प्राचीन हैं। यह भी सुस्पष्ट है कि मूलाचार है कि मूलाचार की रचना कुन्दकुन्द की दिगम्बर परम्परा में न होकर के षडावश्यक अधिकार में आवश्यकनियुक्ति की ८० से अधिक गाथाएँ यापनीयों की अचेल परम्परा में हुई है। स्पष्टत: मिलती हैं। अत: यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत गाथा में नियुक्ति स्वयं मूलाचार के पाँचवें पंचाचार नामक अधिकार की ७९वीं का जो उल्लेख है वह श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध नियुक्तियों से ही गाथा में१३ और ३८७ न० गाथा में४ आचारकल्प, जीतकल्प, है। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश नियुक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय के द्वारा आवश्यकनियुक्ति, आराधना, मरणविभक्ति, पच्चक्खाण, आवश्यक, रचित हैं और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी है। धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) आदि ग्रन्थों के अध्ययन के स्पष्ट निर्देश हैं। इसमें एक बात अवश्य स्पष्ट होती है कि मूलाचार विक्रम की छठी मेरी दृष्टि से उक्त गाथाओं में निम्न ग्रन्थों का निर्देश होता है-(१) शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है। आराधना, (२) नियुक्ति, (३) मरणविभक्ति, (४) संग्रह (पंचसंग्रह), मूलाचारकार यह कहकर 'अब मैं आचार्य परम्परा से यथागत (५) स्तुति (देविन्दत्थुई), (६) प्रत्याख्यान, (७) आवश्यक और (८) आवश्यक नियुक्ति को संक्षेप में कहूँगा' इस तथ्य की स्वयं पुष्टि करता धर्मकथा। है कि उसके समक्ष आवश्यकनियुक्ति नामक ग्रन्थ रहा है। दूसरे सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि इन ग्रन्थों में कौन-कौन से ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में पढ़ने योग्य ग्रन्थों की सूची में नियुक्ति का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मान्य एवं उपलब्ध हैं और कौन-कौन से दिगम्बर भी इसी तथ्य को सूचित करता है। दिगम्बर परम्परा में नियुक्तियाँ परम्परा में मान्य एवं उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों में सर्वप्रथम आराधना लिखी गईं ऐसा कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं है, अत: मूलाचार में का नाम है। आराधना के नाम से सुपरिचित ग्रन्थ शिवार्य का भगवती नियुक्ति से तात्पर्य श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित निर्युक्तयों से ही है। आराधना या मूलाराधना है। यह सुस्पष्ट है कि भगवती आराधना मूलतः इससे यह भी स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर और यापनीय आगमिक ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय संघ का ग्रन्थ है। मूलाचार एक ही थे, उनमें मात्र शौरसेनी और महाराष्ट्री का भाषा-भेद था। मूलाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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