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________________ ९२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के 'स्त्रीमुक्तिविचार' में प्रभाचन्द्र ने दस कल्पों की मान्यता का १८४वीं गाथा में कहा है कि आर्यिकाओं का गणधर गम्भीर दुर्धर्ष, उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धान्त के रूप में किया है। अल्पकौतूहल, चिरप्रवजित और गृहीतार्थ होना चाहिए। इससे जान ३. मूलाचार की 'सेज्जोगासणिसेज्जा' आदि ३९१वीं गाथा और पड़ता है कि आर्यिकाएँ मुनिसंघ के ही अन्तर्गत हैं और उनका आराधना की ३०५वीं गाथा एक ही है। इसमें कहा है कि वैयावृत्ति गणधर मुनि ही होता है। 'गणधरो मर्यादोपदेशक: प्रतिक्रमणाद्याचार्य:' करने वाला मुनि रुग्ण मुनि का आहार, औषधि आदि से उपकार (टीका)। करें। इसी गाथा के विषय में कवि वृन्दावनदास को शंका हुई इन सब बातों से मूलाचार कुन्दकुन्द परम्परा का ग्रन्थ नहीं मालूम थी और उसका निवारण करने के लिए उन्होंने दीवान अमरचन्दजी होता। अत: मूलाचार यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है यह निर्विवाद रूप को पत्र लिखा था। समाचार अधिकार 'गच्छे वेज्जावच्चं' आदि से सिद्ध होता है। १७४वी गाथा की टीका में भी वैयावृत्ति का अर्थ शारीरिक प्रवृत्ति इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार को यापनीय परम्परा का और आहारादि से उपकार करना लिखा है-'वेज्जावच्चं वैयावृत्यं ग्रन्थ मानने के अनेक प्रमाण हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने उपर्युक्त कायिकव्यापाराहारादिभिरुपग्रहणम्।' विवेचन में उन सभी तथ्यों का संक्षेप में उल्लेख कर दिया है जिनके ४. भगवती आराधना की ४१४वी गाथा के समान इसकी भी ३८७वीं आधार पर मूलाचार को कुन्दकुन्द की अचेल-परम्परा के स्थान पर गाथा में आचारकल्प एवं जीतकल्प ग्रन्थों का उल्लेख है, जो यापनीयों की अचेल-परम्परा का ग्रन्थ माना जाना चाहिए। मैं पं० नाथूराम यापनीय को मान्य थे और श्वेताम्बर परम्परा में आज भी जी प्रेमी द्वारा उठाये गये इन्हीं मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करना चाहूँगा। उपलब्ध हैं। सर्वप्रथम मूलाचार और भगवती आराधना की अनेक गाथाएँ समान गाथा २७७-७८-७९ में कहा है कि संयमी मुनि और आर्यिकाओं और समान अभिप्राय को प्रकट करने वाली होने के कारण प्रेमी जी की चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना नहीं पढ़ना चाहिए। ने इसे भगवतीआराधना की परम्परा का ग्रन्थ माना है। प्रेमी जी ने इनसे अन्य आराधना, नियुक्ति मरणविभक्ति, संग्रह, स्तुति, इस तथ्य का भी संकेत किया है कि मूलाचार के समान ही भगवती प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा आदि पढ़ना चाहिए। ये आराधना के भी कुछ ऐसे मन्तव्य हैं जो अचेल दिगम्बर परम्परा से सब ग्रन्थ मूलाचार के कर्ता के समक्ष थे, परन्तु कुन्दकुन्द की मेल नहीं खाते हैं और यदि भगवती आराधना दिगम्बर परम्परा का परम्परा के साहित्य में इन नामों के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। ग्रन्थ न होकर यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध होता है तो फिर मूलाचार ६. मूलाचार 'बावीसं तित्थयरा'' और 'सपडिक्कमणो धम्मो'६ इन दो को भी हमें यापनीय परम्परा का ही ग्रन्थ मानना होगा। यद्यपि प्रेमी गाथाओं में जो कुछ कहा गया है, वह कुन्दकुन्द की परम्परा में जी ने मात्र भगवती आराधना से इसकी गाथाओं की समरूपता की अन्यत्र कहीं नहीं कहा गया है। ये ही दो गाथाएँ भद्रबाहुकृत चर्चा की है। परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती। मूलाचार में श्वेताम्बर आवश्यकनियुक्ति में हैं और वह श्वेताम्बर ग्रन्थ है। परम्परा में मान्य अनेक ग्रन्थों की गाथाएँ समान रूप से उपलब्ध होती ७. आवश्यकनियुक्ति की लगभग ८० गाथाएँ मूलाचार में मिलती हैं। उनमें शौरसेनी और अर्धमागधी अथवा महाराष्ट्री के अन्तर के हैं और मूलाचार में प्रत्येक आवश्यक का कथन करते समय अतिरिक्त कहीं किसी प्रकार का अन्तर भी नहीं है। मूलाचार के बृहद् वट्टकेर का यह कहना कि मैं प्रस्तुत आवश्यक पर समास से प्रत्याख्यान नामक द्वितीय अधिकार में अधिकांश गाथाएँ महापच्चक्खान (संक्षेप में) नियुक्ति कहूँगा, अवश्य ही अर्थसूचक है क्योंकि और आउरपच्चक्खान से मिलती हैं। मूलाचार के बृहद् प्रत्याख्यान सम्पूर्ण मूलाचार में 'षडावश्यक अधिकार' को छोड़कर अन्य और संक्षिप्त प्रत्याख्यान इन दोनों अधिकारों में क्रमश: ७१ और १४ प्रकरणों में नियुक्ति' शब्द शायद ही कहीं आया हो। षडावश्यक गाथाएँ अर्थात् कुल ८५ गाथाएँ हैं। इनमें से ७० गाथाएँ तो आतुर के अन्त में भी इस अध्याय को 'नियुक्ति' नाम से ही निर्दिष्ट प्रत्याख्यान नामक श्वेताम्बर परम्परा के प्रकीर्णक से मिलती हैं। शेष किया गया है। १५ गाथाओं में भी कुछ महापच्चक्खान एवं चन्द्रवेध्यक में मिल जाती मूलाचार में मुनियों के लिए 'विरत' और आर्यिकाओं के लिए हैं। ये गाथाएँ श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के रूप में आज भी स्वीकार्य 'विरती' शब्द का उपयोग किया गया है। (गाथा १८०)। हैं। पुनः अध्याय का नामकरण भी उन्हीं ग्रन्थों के आधार पर है। इसी मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका मिलकर चतुर्विध संघ होता है। प्रकार मूलाचार के षडावश्यक अधिकार की १९२ गाथाओं में से ८० चौथे सामाचार अधिकार (गाथा १८७) में कहा है कि अभी तक गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति से समानरूप रखती हैं। इसके अतिरिक्त इसी कहा हुआ, यह यथाख्यातपूर्व समाचार आर्यिकाओं के लिए भी अधिकार पाठभेद के साथ उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार और दशवैकालिक यथायोग्य जानना। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थ कर्ता मुनियों से अनेक गाथाएँ मिलती हैं। पंचाचार अधिकार में सबसे अधिक और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं (जबकि आ० २२२ गाथाएँ हैं। इसकी ५० से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन और कुन्दकुन्द स्त्री-प्रव्रज्या का निषेध करते हैं।११ फिर १६६वीं गाथा जीवसमास नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ में समान रूप से पायी जाती हैं। में कहा है कि इस प्रकार की चर्चा जो मुनि और आर्यिकायें करती इसमें जो षड्जीवनिकाय का विवेचन है उसकी अधिकांश गाथाएँ हैं वे जगत्पूजा, कीर्ति और सुख प्राप्त करके 'सिद्ध होती हैं। उत्तराध्ययन के ३६वें अध्याय और जीवसमास में हैं। इसी प्रकार ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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