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________________ ७९ प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज जैसलमेर से प्राप्त हुई थी और यह विक्रम संवत् १३३६ की लिखी का ग्रन्थ बना दिया गया। पुनः लगभग ७वीं शताब्दी में यह निमित्तशास्त्र हुई थी। ग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में हैं और उसमें ३७८ गाथाएं वाला हिस्सा अलग किया गया और उसके स्थान पर पांच आश्रव हैं। उसके साथ संस्कृत टीका भी है। यह प्रकाशित ग्रन्थ पार्श्वनाथ तथा पाँच संवरद्वार वाला वर्तमान संस्करण रखा गया। जैसा कि मैंने विद्याश्रम, वाराणसी के पुस्कालय में है। ग्रन्थ का विषय निमित्तशास्त्र सूचित किया कि प्रश्नव्याकरण के पूर्व के दो संस्करण भी चाहे उससे से सम्बन्धित है। इसी प्रकार जिनरत्नकोश में भी शान्तिनाथ भण्डार पृथक् कर दिये गये हों किन्तु वे ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन और खंभात में उपलब्ध जयपाहुड प्रश्नव्याकरण, नामक ग्रन्थ की सूचना प्रश्नव्याकरण नामक अन्य निमित्तशास्त्र के ग्रन्थों के रूप में अपना उपलब्ध होती है।१७ यद्यपि इसकी गाथा संख्या २२८ बताई गई है। अस्तित्व रख रहे हैं। आशा है, इस सम्बन्ध में विद्वद्वर्ग आगे और एक अन्य प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ की सूचना हमें नेपाल के महाराजा मन्थन करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। की लायब्रेरी से प्राप्त होती है। श्री अगरचन्द जी नाहटा की सूचना के अनुसार इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि तेरापन्थ धर्मसंघ के आचार्य मुनिश्री प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु की समरूपता का नथमलजी ने प्राप्त कर ली है। इस लेख के प्रकाशन के पूर्व श्री जौहरीमल प्रमाण जी पारख, रावटी, जोधपुर के सौजन्य से इस ग्रन्थ की फोटो कापी ऋषिभाषित और प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तुओं की पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्राप्त हो गई है। इसे अभी पूरा एकरूपता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक पढ़ा तो नहीं जा सका है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ज्ञात ३१ वें अध्ययन में मिल जाता है। इसमें पार्श्व की दार्शनिक अवधारणाओं हुआ कि इसकी मूलगाथाएं तो सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित की चर्चा है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रन्थकार ने स्पष्ट रूप से यह कृति के समान ही हैं, किन्तु टीका भिन्न है। इसकी एक अन्य फोटो उल्लेख किया है कि व्याकरणप्रभृति ग्रन्थों में समाहित इस अध्ययन कापी लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद का ऐसा दूसरा पाठ भी मिलता है। यह मूलपाठ इस प्रकार हैसे भी प्राप्त हुई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण की सूचना हमें पाटन वागरणगंथाओं पभिति सामित्तं ज्ञान भण्डार की सूची से प्राप्त होती है। यह ग्रन्थ भी चूड़ामणि नामक इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सतिर टीका के साथ है और टीका का ग्रन्थांक २३०० श्लोक परिमाण बताया इसका तात्पर्य तो यह है कि ऋषिभाषित की विषयवस्तु प्रश्नगया है। यह प्रति भी काफी पुरानी हो सकती है। व्याकरण में भी सामहित थी। यद्यपि यह एक विवादास्पद प्रश्न होगा इस सब आधारों से ऐसा लगता है कि प्रश्नव्याकरण का कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु से ऋषिभाषित का निर्माण हुआ या निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित संस्करण भी पूरी तरह विलुप्त नहीं हुआ ऋषिभाषित की विषयवस्तु से प्रश्नव्याकरण का। लेकिन यह सुस्पष्ट होगा, अपितु उसे उससे अलग करके सुरक्षित कर लिया गया हो। है कि किसी समय प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु समान यदि कोई विद्वान् इन सब ग्रन्थों को लेकर उनकी विषयवस्तु को थी और उनमें कुछ पाठान्तर भी थे। अत: वर्तमान ऋषिभाषित में प्राचीन समवायांग, नन्दीसूत्र एवं धवला में प्रश्नव्याकरण की उल्लिखित विषय प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का होना निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता सामग्री के साथ मिलान करे तो यह पता चल सकेगा कि प्रश्नव्याकरण है। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि मूल प्रश्नव्याकरण में पार्श्व नामक जो अन्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण आदि प्राचीन अर्हत् ऋषियों के दार्शनिक विचार एवं उपदेश के ही अंश हैं या अन्य हैं। यह भी सम्भव है कि समवायांग और निहित थे। नन्दी के रचनाकाल में प्रश्नव्याकरण नामक कई ग्रन्थ वाचना-भेद से प्रचलित हो और उनमें उन सभी विषयवस्तु को समाहित किया गया प्रश्नव्याकरण और जयपायड की विषयवस्तु की आंशिक समानता हो। इस मान्यता का एक आधार यह है कि ऋषिभाषित, समवायांग, 'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' नामक जिस ग्रन्थ का हमने उल्लेख नन्दी एवं अनुयोगद्वार में वागरणगंथा एवं पण्हावागरणाइं- ऐसे बहुवचन किया है, उसकी विषय सामग्री निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है। पुन: प्रयोग मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इस काल में वाचनाभेद उसमें कर्ता ने तीसरी गाथा में 'पण्हं जयपायडं वोच्छं' कहकर के से या अन्य रूप अनेक प्रश्नव्याकरण उपस्थित रहे होंगे। प्रश्नव्याकरण और जयपायड की समरूपता को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत इन प्रश्नव्याकरणों की संस्कृत टीका सहित ताड़पत्रीय प्रतियां ग्रन्थ की इसी गाथा की टीका में ग्रन्थ की विषयवस्तु को स्पष्ट करते मिलना इस बात की अवश्य सूचक हैं कि ईसा की ४-५वीं शती हुये कहा गया है कि इसमें 'नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखजीवनमरण' में ये ग्रन्थ अस्तित्व में थे, क्योंकि ९-१०वीं शताब्दी में जब इनकी आदि सम्बन्धी प्रश्न हैं। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि धवलाकार टीकाएं लिखी गईं, तो उसके पूर्व भी ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में ने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख किया है रहे होंगे। उसकी इससे बहुत कुछ समानता है। २१ प्रस्तुत ग्रन्थ के विषयों में सम्भवत: ईसा की लगभग २-३री शताब्दी में प्रश्नव्याकरण में मुष्टिविभाग प्रकरण, नष्टिका चक्र, संख्या प्रमाण, लाभ प्रकरण, निमित्तशास्त्र सम्बन्धी सामग्री जोड़ी गई हो और फिर उसमें से ऋषिभाषित अस्त्रविभाग प्रकरण आदि ऐसे हैं जिनकी विषयवस्तु समवायांग में का हिस्सा अलग किया गया और उसे विशिष्ट रूप से एक निमित्तशास्त्र प्रश्नव्याकरण के वर्णित विषयों से यत्किचित् समान हो सकती है।२२ Jain Education 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SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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