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________________ ७८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ से बना हुआ ग्रन्थ है। इसका तात्पर्य है कि इसकी विषय-सामग्री पूर्व मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांग में प्रस्तुत जैन साहित्य-विवरण के में किसी ग्रन्थ का उत्तरवर्ती अंश रही होगी। इस तथ्य की पुष्टि का पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अस्तित्व में नहीं दूसरा किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप गाथा ४ में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उत्तराध्ययन में था। का कुछ भाग अंग साहित्य से लिया गया है। उत्तराध्ययन नियुक्ति पुन: उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के की इस गाथा का तात्पर्य यह है कि बन्धन और मुक्ति से सम्बन्धित अधीन मानने से ही सिद्ध हो सकता है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु जिनभाषित और प्रत्येकबुद्ध के संवादरूप इसके कुछ अध्ययन अंग का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि ३६ अपृष्ट का व्याख्यान ग्रन्थों से लिये गये है। नियुक्तिकार का यह कथन तीन मुख्य बातों करने के पश्चात् ३७वें प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए पर प्रकाश डालता है। प्रथम तो यह कि उत्तराध्ययन के जो ३६ अध्ययन भगवान परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु की हैं, उनमें कुछ जिनभाषित (महावीरभाषित) और कुछ प्रत्येकबुद्धों के चर्चा करते हुए उसमें पृष्ट, अपृष्ट और पृष्टापृष्ट प्रश्नों का विवेचन संवाद रूप है तथा अंग साहित्य से लिये गये हैं। अब यह प्रश्न स्वाभाविक होना बताया गया है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरण रूप से उठता है कि वह अंग-ग्रन्थ कौन सा था, जिससे उत्तराध्ययन और उत्तराध्ययन की समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ट प्रश्नों के ये भाग लिये गये? कुछ आचार्यों ने दृष्टिवाद से इसके परिषह का व्याकरण है। आदि अध्यायों को लिये जाने की कल्पना की है, किन्तु मेरी दृष्टि हम यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि पूर्व में ऋषिभाषित में इसका कोई आधार नहीं है। इसकी सामग्री उसी ग्रन्थ से ली जा ही प्रश्नव्याकरण का एक भाग था। ऋषिभाषित को परवर्ती आचार्यों सकती है जिसमें महावीरभाषित और प्रत्येकबुद्ध भाषित विषयवस्तु ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को हो। इसप्रकार विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की ही थी अत: उससे ही इन्हें प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन लिया गया होगा। यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकार की जा सकती एवं ऋषिभाषित एक दूसरे से निकटरूप से सम्बन्धित थे और किसी है कि चाहे उत्तराध्ययन के समस्त अध्ययन तो नहीं, किन्तु कुछ अध्ययन एक ही ग्रन्थ के भाग थे। हरिभद्र (८वीं शती) आवश्यकनियुक्ति की तो अवश्य ही महावीरभाषित हैं। एक बार हम उत्तराध्ययन के ३६ वृत्ति (८/५) में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते हैं। तेरहवीं वें अध्ययन एवं उसके अन्त में दी हुई उस गाथा को जिसमें उसका शताब्दी तक भी जैन आचार्यों में ऐसी धारणा चली आ रही थी कि महावीरभाषित होना स्वीकार किया गया है, परवर्ती एवं प्रक्षिप्त मान ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है। जिनप्रभसूरि की भी लें, किन्तु उसके १८ वें अध्ययन की २४ वीं गाथा जो न केवल विधिमार्गप्रपा में, जो १४ वीं शताब्दी की एक रचना है- स्पष्ट रूप इसी गाथा के सरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित का अन्तर्भाव प्राचीन लगती है- प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के सम्वादरूप हैं ___ को समग्र रूप में एक ग्रन्थ मानें तो ऐसा लगता है कि उस ग्रन्थ तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अंग ग्रन्थ के भाग हो सकते का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तरवर्ती भाग उत्तराध्ययन कहा हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निर्देश करते हुए स्थानांग, जाता था। समवायांग और नन्दीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं यह तो हुई प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात। प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्र प्रधान दूसरे के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं। उत्तराध्ययन ___ संस्करण की क्या स्थिति हो सकती है- क्या वह भी किसी रूप में के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें तो स्पष्टरूप से उनमें नमिपव्वज्जा, सुरक्षित है? कापिलीय, संजयीया आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येक बुद्धों के सम्वादरूप जहां तक निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित प्रश्नव्याकरण के दूसरे मिलते हैं। जबकि विनयसुत्त, परिषह विभक्ति, संस्कृत, अकाममरणीय, संस्करण के अस्तित्व में होने का प्रश्न है- मेरी दृष्टि में वह भी क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे हैं और केसी-गौतमीय, गद्दमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित प्रश्नव्याकरण से पृथक् कर उसके स्थान पर आश्रयद्वार और संवरद्वार कहे जा सकते हैं। अत: प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने विषय-सामग्री से इस उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण जिनवाणी, दिसम्बर १९८० में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्नव्याकरण हुआ है। नामक कुछ अन्य ग्रन्थों का संकेत किया है। 'प्रश्नव्याकरणाख्य यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया जयपायड' के नाम से एक ग्रन्थ मुनि जिनविजयजी ने सिंघी जैन है, किन्तु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है। ___ग्रन्थमाला के ग्रन्थ क्रमांक ४३ में संवत् २०१५ में प्रकाशित किया जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके है स्थानाङ्ग ही ऐसा प्रथम ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के आधार पर प्रकाशित किया है जो जैन आगम-साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप की सूचना देता है। गया है। ताड़पत्रीय प्रति खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के ज्ञानभण्डार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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