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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य एक विमर्श : यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्दरूप मिलते हैं— तद्भव तत्सम और देशज देशज शब्द वे हैं जो किसी देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त है। इनके अर्थ की व्याख्या के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। तदभव शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं जबकि संस्कृत के समान शब्द तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से जो शब्दरूप बना है वह तद्भव है। प्राकृत-व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता है। अतः यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या मॉडल मानकर यह व्याकरण लिखा गया है अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। संस्कृत शब्द रूप को मॉडल / आदर्श मानना इसलिये आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीपजी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में प्रकृतिः शौरसेनी का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण लिखा गया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई। प्राचीन कौन ? अर्धमागधी या शौरसेनी इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि "यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम- साहित्य को ही मूल आगम- साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से, इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही ५००ई० के परवर्ती मानना पड़ेगा । " ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं। उससे निःसन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति प्रधान थी और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री में जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कह रहे हैं, बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति के स्थान पर 'द' श्रुति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी की विशेषता है। इस प्रसङ्ग में डॉ. टॉटियाजी के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटियाजी Jain Education International २९ से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा की वे आचाराङ्ग, ऋषिभाषित सूत्रकृताङ्ग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में 'द' श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। यह एक अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में समान हैं। वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रुति देखी जाती है और न "न" के स्थान पर "ण" की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है न कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण । यह सत्य है कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं। क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था? डॉ. सुदीपजी द्वारा टॉटियाजी के नाम से उद्धृत यह कथन कि १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णतः प्रान्त है आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है। क्या उस समय से आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और 'ण' कार की प्रवृत्ति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी की जन्मभूमि है) के जैन अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई०पू० में रचा गया हो? सत्य तो यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा की चौथी - पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई०पू० तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहें हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन नरेश हाल की गाथा सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई०पू० प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है यह एक संकलन ग्रन्थ है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की पाँचवीं, छठीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं । षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५ वीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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