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________________ २८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत्' (८/०४/२८६) का अर्थ होगा टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुएनहीं होगा। यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टॉटिया जी का यह कथन कि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और क्या अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे? फिर पालि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' सत्य है, तो उन्हें या प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ.सुदीप सुदीप जी को इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए। जैन ने प्रोटॉटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि "श्वेताम्बर वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका जाता है तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती स्वरूप क्रमश: अर्धमागधी के रूप में बदल गया"। इस सन्दर्भ में है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम-साहित्य शौरसेनी जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिये भी व्याकरण प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यत: संस्कृत की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत हम से गृहीत किये गये। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति यह पाते हैं कि दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम-साहित्य बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं? उदाहरण की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो.ए.एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ के शब्द रूप हैं। उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर इसमें स्वर-परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यञ्जनों के परिवर्तन, 'य' श्रुति बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब साहित्यिक भाषा इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण विद्वान् प्रो.खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्दरूपों शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार जहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को समझाते हैं वही भाषा की किसी प्रकृति कहलाते हैं। यह सत्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है। आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना सकता है कि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने हैं वे संस्कृत शब्द हुए। अपितु इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम रूपों के आधार पर बने हैं। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुन: अर्धमागधी भाषा के स्वरूप का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका नहीं बनाया गया, अपितु, उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः के शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहे हैं। को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि यही कारण है कि डॉ.ए.एन उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पन्न अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं। जबकि वह मूलत: महाराष्ट्री हुआ है इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी तो 'त' श्रुति रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द प्रधान है। या शब्दरूपों की व्याख्या करते हैं । संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कहने का इतना ही तात्पर्य है। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णत: मिथ्या है कि होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। शौरसेनी शब्दों को आधार मानकर समझाया गया है। 'प्राकृतप्रकाश' वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वलभी की टीका में वररुचि ने स्पष्टत: लिखा है- शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां वाचनाओं के समय क्रमश: शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित प्रकृतिः संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं। हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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