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________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन-दर्शन २५ आवश्यक होता है । यह भी सिर्फ उपाधि परीक्षाओं के लिये ही है, अन्यथा शेष परीक्षाओं में हजारों विद्यार्थियों के सम्मिलित होने पर भी उनसे किसी भी प्रकार का परीक्षा-शुल्क नहीं लिया जाता। प्रश्नपत्र उत्तमोत्तम विद्वानों के द्वारा बनवाए जाते हैं तथा समय-समय पर परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में परिवर्तन करके नवीन ग्रन्थों को उनमें स्थान दिया जाता है । (घ) पारितोषिक-इस विभाग के अन्तर्गत दिवंगत मुनिवर श्रद्धेय श्री उत्तमऋषि जी महाराज की पवित्र स्मृति में "उत्तमज्ञान-पारितोषिक फण्ड" की स्थापना की गई है। जिसके द्वारा प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों को रजत पदक प्रदान किये जाते हैं तथा जो परीक्षार्थी पदक के योग्य अंक प्राप्त नहीं करते, उनमें से भी जो योग्य होते हैं, उन्हें उत्तम पुस्तके पारितोषिक के रूप में दी जाती हैं। आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के अथक प्रयत्नों से संचालित यह संस्था ऐसा अभूतपूर्व कार्य कर रही है जो इतिहास में स्वर्णाक्षरों से उल्लेख करने योग्य है। (६) श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति-इस समिति की स्थापना के मूल में लोगों की प्राकृत भाषा के प्रति रही हई उपेक्षा और अनादर ही है। यद्यपि इस भाषा ने ही अहिंसा एवं सत्य के अमर उपासक मंगलमय भगवान महावीर के लोकोपकारी उपदेशों को हम तक पहुँचाया है तथा उन अमुल्य विचारों की सजग प्रहरी के समान रक्षा करती रही है, किन्तु साम्प्रदायिक विष से ओत-प्रोत अनेक व्यक्ति इसे अशिक्षित एवं ग्रामीण लोगों की भाषा कहकर अपमानित करते हैं। यही कारण है कि हमारे श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य स्वर्गीय पूज्यपाद श्री आत्माराम जी महाराज के हृदय में इस भाषा के प्रचार व प्रसार की बलवती भावना जागृत हुई थी। फलस्वरूप आपने 'प्राकृत-बालबोध' एवं 'प्राकृत बाल मनोरमा' नामक दो पुस्तकों की रचना की, ताकि छात्र उनकी सहायता से इस भाषा का प्रारम्भिक ज्ञान करते हुए उत्तरोत्तर इसकी तह में पहुंच सकें। आद्य आचार्यसम्राट इस भाषा के पुनरुत्थान के लिये बहुत कुछ करना चाहते थे किन्तु शारीरिक अस्वस्थता के कारण आपके संकल्प क्रियात्मक रूप नहीं ले पाए तथा उनका कार्य अधूरा रह गया। किन्तु परम सौभाग्य की बात है कि जिस कार्य को भूतपूर्व आचार्य अधूरा छोड़ गए, उसे पूर्ण करने का बीड़ा उनके प्रथम पदधर आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने उठा लिया तथा विक्रम संवत् २०२१ के अपने जयपुर चातुर्मास में आपने इस समिति की पुनीत स्थापना कर दी। यह समिति स्कूलों, विद्यालयों तथा धार्मिक शालाओं के शिक्षार्थियों के लिये प्राकृतभाषा सम्बन्धी पाठ्यक्रम तैयार करती है ताकि इसका अधिकाधिक प्रचार हो सके तथा जिज्ञासु व्यक्ति इसके महत्त्व को समझते हुए इसे अपना सकें । चरितनायक ने इस समिति की स्थापना करके प्राकृतभाषा के विकास एवं उत्कर्ष के लिए जो ठोस कदम उठाया है, उसकी जितनी भी सराहना की जाय कम है। कहने का अभिप्राय यही है कि आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषि जी महाराज ने साहित्य-साधना के क्रियात्मक पहले पर भी पूरा ध्यान दिया है तथा उसे सफल बनाने में उपरोक्त संस्थाओं के अलावा भी अन्य अनेक संस्थाएँ तथा धार्मिकशालाएं अपनी सत्प्रेरणा से खुलवाईं तथा पुरानी संस्थाओं को नवजीवन देकर पुनः चालू किया है। जिनमें से कतिपय के नाम हैं (७) श्री अमोल जैन पाठशाला, बम्बई (८) श्री रत्न जैन बोडिंग, बोदवड़ (8) श्री महावीर जैन पाठशाला, पूना (१०) श्री महावीर सार्वजनिक वाचनालय, चिचोड़ी (११) श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन वाचनालय, बदनोर चय +AAIR........dow A ADATADAKALA आपायप्रवर अभिशपायप्रवर अभी श्रीआनन्द अन्नाआनन्द आभ MVWWWM vr.xviron m - ram------ - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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