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________________ ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन दर्शन १६ RRC Stest या ज्ञान के ठेकेदार पंडितजी की बात सुनकर पूज्यपाद गुरुदेव एवं अन्य सभी श्रावक स्तब्ध एवं चकित रह गये। कट्टर साम्प्रदायिकता के विष से पीड़ित शास्त्रीजी गुरुदेव को अत्यन्त करुणा के पात्र महसूम हुए और उनकी अज्ञान दशा के लिये आन्तरिक रूप से दुखी होते हुए बोले "पंडित जी आप विद्वान एवं ज्ञानी हैं। भले ही हमारे मुनि को आप पढ़ाये अथवा न पढ़ायें, मुझे इसका रंचमात्र भी दुख नहीं। अफसोस केवल इस बात का है कि आप जैसे विद्वान एवं गम्भीर पुरुष भी ऐसी गलत धारणायें मन में पालते हैं। आप जानते होंगे कि नास्तिक वे कहलाते हैं जो आत्मा, परमात्मा, पुण्य, पाप, बन्धन, मुक्ति और परलोक में विश्वास नहीं रखते। पर यदि आप जैनदर्शन को उठाकर देखें तो सहज ही जान सकते हैं कि जैनधर्म इन सभी को मानता है। यही प्रयत्न करता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा को पाप-बन्धनों से मुक्त कर के परमात्मपद की प्राप्ति करे । इसप्रकार जैनधर्म पूर्णतया आस्तिक है, नास्तिक कदापि नहीं।" "इसके अलावा आप किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हो कोई हर्ज नहीं, किन्तु अन्य धर्म के प्रति ईर्ष्या और द्वेष रखना अत्यन्त अहितकर तथा आत्मा को अवनति की ओर ले जाने वाला है। इसीलिये जैन शास्त्रों में ही नहीं, अपितु समस्त हिन्दू शास्त्रों में द्वेष भावना को निन्दनीय व त्याज्य बताया गया है। भगवद् गीता तो आपका ही मान्य ग्रन्थ है। उसमें भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है अद्वेष्टा सर्वभूतानां, मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहंकारः, समदुःख-सुखः क्षमी ।। सन्तुष्टः सततं योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यपितमनोबुद्धिर्यो-मद्भक्तः स मे प्रियः ।। -अ० १२/१३-१४ अर्थात् हे अर्जुन ! जो पुरुष सर्वभूतों के प्रति द्वेषभाव एवं स्वार्थ नहीं रखता, सबका स्नेही, दयालु, ममता एवं अहंकार से रहित होता है, सुख एवं दुःख में समभाव रखने वाला, क्षमाशील, संतोषी, जितेन्द्रिय एवं मुझमें दृढ़ निश्चय रखने वाला है और जो मुझमें अर्पित मन-बुद्धि वाला है, वही मेरा भक्त मुझे प्रिय लगता है। "तो पंडित जी ! जब कृष्ण भी द्वषाग्नि से रहित व्यक्ति को प्रिय मानते हैं तब आप जैसे ज्ञानवान और विद्वान को तो इस आत्मविनाशक अग्नि से दूर ही रहना चाहिए। आप जैसे पंडित भी अगर इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे तो फिर आपसे शिक्षा प्राप्त करने वाले तथा अन्य साधारण व्यक्ति किस प्रकार अपने आपको बचा पाएंगे।" । इस प्रकार गुरुदेव ने शास्त्री जी को समझाया किन्तु पंडित जी अपनी आत्मा को निर्मल नहीं बना सके । फिर उपाय ही क्या था? गुरु महाराज उनके लिये भी कल्याण-कामना करते हुए अपने निवासस्थान पर पधार गये। वहाँ के स्वाभिमानी श्रावकों ने उसी समय श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के शिक्षण हेतु प्रसिद्ध समाचारपत्र 'केसरी' में सुयोग्य विद्वान के लिये विज्ञापन भिजवा दिया। परिणामस्वरूप अनेक आवेदनपत्र आए और उनमें से वाराणसी विश्वविद्यालय के एक पंडित श्री राजधारी जी त्रिपाठी को बुलवा लिया गया। यद्यपि इस बीच और भी एक दो अध्यापक आकर जा चुके थे किन्तु त्रिपाठी जी के रूप में योग्य शिक्षक लम्बे काल के पश्चात् मिल गए। त्रिपाठी जी शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं अनुभवी विद्वान थे तथा अध्यापन के बीच में उठती हुई प्रत्येक शंका के निवारण करने की क्षमता रखते थे। इधर उनके छात्र मुनिथी अत्यधिक ज्ञानपिपासू, मेधावी एवं परिश्रमी थे अतः अध्ययन एवं अध्यापन, दोनों ही कार्य अविराम गति से चल पड़े। किसी को भी कठिनाई महसूस नहीं हुई। ARY Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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