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________________ आयाम श्री आनन्द DD π 2000 अभिआर्य प्रस अन्थ श्री आनन्द आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व यह सुनते ही अनेक श्रावक मुक्तभाव से हँस पड़े और चैन की सांस लेकर बोले - "गुरुदेव ! आपने तो हमें डरा दिया । भला यह भी कोई चिन्ता करने की बात है ? प्रतिभाशाली छात्र तो अपनी प्रत्येक शंका का समाधान चाहेगा ही । यही तो उसकी विशेषता और प्रतिभा का चिह्न है ।" "आपकी बात सत्य है श्रावक जी, किन्तु आज तो उसकी प्रतिभा मेरे लिये समस्या बन गई है। अब उसे पढ़ाया कैसे जाय ?" गुरुदेव ने अपनी कठिनाई उपस्थित को । "आप चिन्ता न करें भगवन् ! हम मुनि श्री आनन्दऋषि जी के लिये और भी योग्य एवं प्रकांड पंडित लाने का प्रयत्न करेंगे ।" 20 १८ अभिन्दन अन्थ श्रावक संघ ने अपने वायदे के अनुसार प्रकांड विद्वान की खोज आरम्भ कर दी और अन्त में बहुत सोच-विचार कर विद्या के केन्द्र काशी से ही एक महाविद्वान शास्त्री जी को बुलवाया गया। नये शास्त्री जी ने बड़े उत्साह से अपने शिष्य को शिक्षण देना प्रारम्भ किया और अपनी सम्पूर्ण शक्ति इस शुभ कार्य में लगा दी । किन्तु खेद की बात रही कि उनका उत्साह भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया और छात्र की तेजस्विता के कारण उनकी बुद्धि ने भी टका-सा जबाव दे दिया। परिणाम यही हुआ कि अन्य पंडितों की तरह वे भी अध्यापनकार्य में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए पलायन कर गए। यह देखकर महामहिम श्री रत्नऋषिजी महाराज अत्यन्त खिन्न हो गए और मन की उसी दशा में आपने निश्चय किया कि हमें ऐसे किसी क्षेत्र में विचरण करना चाहिये जहाँ सुयोग्य विद्वानों का अभाव न हो तथा आनन्दऋषि का अध्ययन निर्विघ्न चल सके । इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये आपने पूना की ओर विहार कर दिया। मनोकामना पूर्ण हुई पूना भारतवर्ष का एक सुप्रसिद्ध नगर है । संस्कृत की शिक्षा के लिये यह सर्वश्रेष्ठ केन्द्रस्थान माना जाता रहा है। उन दिनों भी वहाँ अनेक उत्तमोत्तम संस्कृत पाठशालाएं थीं जो सैकड़ों शिक्षाप्रेमियों की आकांक्षा को पूर्ण करती थीं । इसीलिये ऋषिवर्य श्री रत्नऋषिजी महाराज अपनी संतमंडली सहित निर्वी, राहु आदि अनेक सुन्दर क्षेत्रों को अपने चरणों से पावन करते हुए पूना में पधारे। वहाँ के जैनधर्मावलम्बी व्यक्तियों को जब आपके आगमन की सूचना मिली तो हर्ष से फूले न समाए तथा अनिर्वचनीय आनन्द से ओत-प्रोत होकर उन्होंने गुरुदेव का स्वागत किया । अपने होनहार एवं तेजस्वी शिष्य आनन्दऋषि जी का भविष्य समुज्ज्वल बनाने की आकांक्षा लिये हुये अपनी वृद्धावस्था एवं स्वास्थ्य का विचार छोड़कर जगतवन्द्य गुरुदेव श्री रत्नऋषिजी महाराज पूना पधारे एवं वहाँ की जनता को अपने प्रभावशाली प्रवचनों से लाभान्वित करना प्रारम्भ किया । किन्तु शीघ्र ही उन्हें अपने पूना आने के उद्देश्य का ध्यान आया और आप एक दिन वहाँ के प्रमुख श्रावकों को लेकर प्रसिद्ध संस्कृत पाठशाला में पधारे । वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ता एवं विद्वान श्री गणेश शास्त्री गोडबोले थे । उन्हें महाराज श्री ने अपना उद्देश्य बताते हुए कहा - 'हमें अपने छोटे मुनि आनन्दऋषि को संस्कृत भाषा का अध्ययन करवाना है । क्या आप उनके लिये किसी योग्य विद्वान की व्यवस्था कर सकते हैं, जो करीब दो घण्टे का समय दे सके ? पूर्ण वेतन की व्यवस्था करवा दी जायगी।" फ्रं "यह ठीक है महाराज ! हमारा कार्य ही शिक्षण देना है और समय भी दिया जा सकता है । किन्तु वास्तविकता यह है कि हम किसी भी जैनधर्म के अनुयायी को नहीं पढ़ाते, क्योंकि जैन नास्तिक होते हैं अतः उन्हें ज्ञान-दान देना हमारी दृष्टि से नितान्त पाप है । इस बारे में हम अपने सिद्धान्त के पक्के हैं और इसीलिये हमारी विवशता है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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